प्राकृतिक आपदा
बारिश की गिरफ्त में,
मैं असहाय बैठी हूँ,
डर के हाथों से झकझोर दी गई हूँ।
जहाँ पक्षी आकर चहचहाने चाहिए थे,
वहाँ केवल अराजकता और बेचैनी की गूँज चीखती है।
मैं इस आपदा का सामना कैसे करूँ?
मनुष्य और प्रकृति के बीच
एक बड़ा युद्ध छिड़ा हुआ है।
एक साया हर चीज़ पर छा गया है,
मेरे दिल की खुशियों को चीरता हुआ।
पानी ज़मीन पर बह रहा है,
लेकिन बाढ़ मेरी आँखों में है।
इसने मेरे सभी सपनों को बहा दिया है,
रंगहीन, निर्मम लहरों से।
मेरे मन की इच्छाओं को भी कुचल दिया,
जैसे सूखी धरती कांपने लगती है।
यहाँ, मेरा दिल सागर की तरह है,
लेकिन मेरी आँखें, एक बंजर रेगिस्तान।
जैसे पत्ते शाखाओं से टूटते हैं,
मैं भी बिखर चुकी हूँ।
इस आग को मैं कैसे सहूँ,
जो प्रकृति हर कदम पर उगलती है?
धधकता सूरज फैल गया है,
मेरे तन और मन को झुलसाता हुआ।
क्या मेरी ज़िंदगी का भविष्य
सिर्फ प्राकृतिक आपदाओं से जूझने के लिए बना है?
बार-बार, ये संघर्ष
मेरे मन के दरवाजे पर दस्तक देता है।
मेरा वर्तमान और भविष्य संकट में हैं,
क्या मेरे अंदर छुपा योद्धा
इस खतरे को मिटा सकता है?
मैं, कमजोर और नाजुक, किससे कहूँ?
अगर आज है, तो कल भी होगा।
एक छोटी बच्ची के दिल में जो हलचल है,
वो कैसे शांत हो सकती है?
अगर हम इन प्राकृतिक आपदाओं को न रोकें,
तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा।
एक कली की तरह, मैं मुस्कुराना चाहती हूँ,
संघर्ष के खिलाफ उठ खड़ा होना चाहती हूँ।
क्या मेरा कदम
पहला होगा?
मेरा दिल हर पल हिम्मत की तलाश करता है।
मैं अपना भविष्य बचाना चाहती हूँ,
हर दिन वही सपना देखती हूँ।
लेकिन धरती का क्रोध देखकर,
मैं सहम जाती हूँ।
मैं कांपती हूँ,
मैं—
मैं—
मैं—
हर पल अपने आँसुओं से
एक अधूरी कहानी लिखती हूँ।
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-सुएता दत्त चौधरी