मुझको चाहिये

चाहिये मुझको अदब की इक सौग़ात चाहिये
कलम को रवानी मेरे दिल को जज़बात चाहिये

आस्मां से उतर समा जाये रग रग मे जो
शब्दों की ऐसी पूरी एक क़ायनात चाहिये

रौनक इतनी पांव थिरकें होंठ गुनगुना उठें
यूं झूमती गाती ग़ज़लों नज़्मों की बारात चाहिये

भींग उठे तनमन अपना हो सफल जीवन तब अपना
इस कदर गीतों मे मेरे मुहब्बत की बरसात चाहिये

दर्द निर्मल का छलकता रहे नग़्मों मे हमेशा
सबको अपना सा लगे हर नग़्मा ऐसी वो बात चाहिये

*****

– निर्मल सिद्धू

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