
गुजराती और हिंदी के अंतर्संबंध
– (आलोक गुप्त : पूर्व प्रोफेसर, गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय एवं पूर्व फेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला)
इस लेख में गुजराती और हिंदी के संबंध को भाषा स्वरूप परिवर्तन, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ में स्पष्ट करने का प्रयास है। भाषा वैज्ञानिक गुजराती और हिंदी का संबंध शौरसेनी प्राकृत, नागर अपभ्रंश या शौरसेनी अपभ्रंश से मानते हैं। अपभ्रंश के प्रसिद्ध आचार्य हेमचंद्र सूरि के ‘सिद्धहेम शब्दानुशासन’ में जिन अपभ्रंश के दोहों को उद्धृत किया है, विद्वान उनका संबंध हिंदी और गुजराती से जोड़ते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि यह बोलचाल की भाषा नहीं थी, बल्कि उसका साहित्यिक रूप है। अपभ्रंश का अधिकतर साहित्य इन क्षेत्रों के प्रमुख नगरों या जैन भंडारों- अहमदाबाद ,पाटण और जैसलमेर से प्राप्त हुआ है। डॉ. नामवर सिंह ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’ में लिखा है- “साहित्यिक अपभ्रंश मूलत: और मुख्यतः पश्चिमी भारत की बोली होते हुए भी आठवीं से 13वीं शताब्दी तक समूचे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा थी। एक ओर इसमें बंगाल के सरह और कण्ह जैसे सिद्ध कवियों ने दोहाकोषों की रचना की और मिथिला में ज्योतिरीश्वर तथा विद्यापति ने स्थानीय बोली का पुट देकर साहित्यिक अपभ्रंश में ग्रंथ लिखे, तो दूसरी ओर मुल्तान के अब्दुल रहमान का भी कंठ इसी में फूटा। दक्षिण के मान्यखेट में पुष्पदंत ने इसी वाणी को अपने हृदय का हार बनाया। अस्सये के कान कामत मुनि ने इसी में चरित्र गाया और महाकवि स्वयंभू ने रामायण की रचना के लिए इसी भाषा को चुना।”1
प्राचीन समय से गुजरात और मध्य देश के बीच राजनीतिक और धार्मिक संबंधों के प्रमाण मिले हैं। श्री कृष्ण के मथुरा से द्वारका आने की कथा तो प्रसिद्ध है ही, ए. के. फॉर्ब्स ने कर्नल टाड के मत को उद्धृत करते हुए लिखा है कि ‘सन् 144 -145 में कनकसेन नामक सूर्यवंशी राजकुमार अपनी मातृभूमि कौशल को त्याग कर विराट भूमि में जो इस समय संभवत धौलकानगर के नाम से विख्यात है जहाँ किसी समय निष्कासित पांडु पुत्र जाकर रहे थे – आकर रहने लगा। उसने वहां के शासक परमार राजा को पराजित कर बड़नगर की स्थापना की। चार शताब्दियों के पश्चात इस वंश के किसी राजा ने बीजापुर बसाया। इसी वंश के किसी राजा ने प्रसिद्ध वल्लभी राज्य की स्थापना की थी।’2
नामवर सिंह जी ने पश्चिमी भारत की किस भाषा को संपूर्ण उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा का गौरव किन कारणों से मिला, इस पर विस्तार से विचार किया है। उन्होंने राष्ट्रकूट राजाओं के आधिपत्य में तत्कालीन बोलियों को अपभ्रंश के रूप में केंद्रित करने और विकसित करने का श्रेय दिया है । पुष्पदंत और स्वयंभू जैसे कवियों को भी उन्होंने छत्रछाया दी। राष्ट्रकूट राजा लाट, सौराष्ट्र पर आक्रमण करते थे और यह प्रदेश बहुत दिनों तक उनके अधिकार में थे। वे जैन थे और उनकी प्रजा का अधिकांश संपन्न समाज जैन वैश्य था। उन्होंने जैन- समुदाय द्वारा बोली जाने वाली अपभ्रंश भाषा को संरक्षण दिया। उस समय पश्चिम भारत का अधिकांश वाणिज्य जैन वैश्यों के हाथ में था। धीरे-धीरे गुजरात इस वाणिज्य का केंद्र हो जाना था इसलिए इस क्षेत्र की भाषा का राष्ट्रीय भाषा के रूप में उत्थान स्वाभाविक ही था।3 पाँचवीं शताब्दी से लेकर 11वीं शताब्दी तक अपभ्रंश के विकास में गुजरात राजस्थान और मालवा का विशेष योगदान है। सौराष्ट्र के वल्लभीपुर नगर का राजा गुहसेन संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में भी काव्य रचना करता था। वल्लभीपुर के बाद भिन्नमाल (आबू पर्वत से 50 मील उत्तर पश्चिम) गुजरात- सौराष्ट्र का विद्या केंद्र बना। आठवीं शताब्दी से 11वीं सदी तक पश्चिमी राजपूताना तथा उत्तर गुजरात का बहुत सा प्रदेश ‘गुज्जरत्ता’ या ‘गुर्जरत्रा’ के नाम
* राष्ट्रीय संगोष्ठी, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में पठन किया गया
से प्रसिद्ध था इस भाषा को विद्वान ‘मारु गुर्जर’ या ‘प्राचीन गुर्जर’ कहते थे। दसवीं सदी के अंत से अणहिलवाड़ पाटन
(पट्टन) गुजरात की राजधानी बना। इस चौलुक्य काल में पाटन और मालवा की राजधानी धारा के बीच साहित्य एवं विद्या चतुर की स्पर्धाएं होती रहती थीं।4
रघुवीर चौधरी हिंदी गुजराती के पारस्परिक प्रभाव के संबंध में राजनीतिक कारण भी उल्लेखनीय मानते हैं। तथ्यों के आधार पर उन्होंने लिखा है कि अलाउद्दीन खिलजी का दोस्त और प्रतापी सेनानी मलिक काफूर गुजराती था। वह कई चीजें दिल्ली तक ले आया। कुतुबुद्दीन खिलजी का प्रिय पात्र नौमुस्लिम खुसरो खां गुजरात की संगीत जीवी जाति का था। 1320 में वह दिल्ली का सुल्तान बना उससे पहले वह 40,000 गुजराती हिंदू दिल्ली ले आया था।5
11वीं शताब्दी में राजा सिद्धराज जयसिंह के शासनकाल में जैन मत और अपभ्रंश साहित्य को प्रश्रय मिला। सिद्धराज जयसिंह ने जैन आचार्य हेमचंद्र सूरी को विशेष संरक्षण दिया और उन्हें राज्य की ओर से सभी सुविधाएं प्रदान कीं। उनके ग्रंथों को राजधानी पाटण में हाथियों पर रखकर शोभायात्रा निकलवाई थी। सोलंकी युग में गुजरात का वैभव पराकाष्ठा पर था। वाणिज्य और संस्कृति दोनों में वह भारत में सिरमौर हो रहा था इसलिए ऐसे राज्य की साहित्यिक भाषा को उस समय की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठा मिलना स्वाभाविक था।6 इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से स्पष्ट होता है कि गुजराती प्रजा और भाषा का विस्तार मध्य देश तक हो गया था । संभवत: इसीलिए गुजराती विवेचक आनंदशंकर ध्रुव ने लिखा है कि “यह बात सुविदित है कि गुर्जर प्रजा एक समय कन्नौज, मालवा, पश्चिमी राजस्थान, सौराष्ट्र, लाट और खानदेश तक बसती थी। इस कारण इसकी प्राचीन भाषाओं का इतिहास उन उन प्रांतों की वर्तमान भाषाओं के साथ संबंधित है।7
हम जानते हैं कि राजनीतिक प्रश्रय किसी भाषा के विकास में सहायक तो हो सकता है लेकिन उसके स्वरूप में परिवर्तन के कारण इकहरे नहीं होते। गुजराती और हिंदी को शौरसेनी या नागर अपभ्रंश की विरासत मिली है, उस संदर्भ में अपभ्रंश के प्रसिद्ध विद्वान हरिवल्लभ भायाणी ने लिखा है,” व्याकरण, शब्द संपदा, प्रयोग, साहित्य शैली, छंद रचना और साहित्य स्वरूप इस सब में गुजराती, राजस्थानी, हिंदी आदि को अपभ्रंश की विरासत मिली है—–शब्द रचना, समास, विभक्ति और आख्यातिक रूप रचना, वाक्य के प्रकार और रूढ़ोक्तियाँ – इन बातों में अपभ्रंश के प्रवाह और परंपरा ‘जूनी गुजराती’ ,मध्यकालीन गुजराती द्वारा आधुनिक समय तक अविरत चली आई है । नव विधान अवश्य हुआ है और अधिक प्रमाण में हुआ है, परंतु वह अपभ्रंश कालीन जमीन के ऊपर हुआ है ,यह भी स्पष्ट है।”8
प्रो. भायाणी ने गुजराती और हिंदी के रूपों में हुए परिवर्तनों में अपभ्रंश के प्रदान को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है । जैसे प्रथमा में उकारांत के आकारांत रूप घोडउ – घोडो गुजराती- घोड़ा हिंदी, मकार अविकृत से मकार का वँकार (गुजराती नाम हिंदी नावँ) वकार की वैसे ही रखना और वकार का लोप- (दीवो गुजराती , दिया हिंदी) इसी तरह इउ और इ वाले संबंध भूत कृदंत गुजराती (करिउ करी- हिंदी करि, कर) जैसे लक्षण साथ-साथ मिलते हैं, जो बाद में राजस्थानी- गुजराती और हिंदी बोलियों के लिए लाक्षणिक बन जाते हैं।9
गुजराती भाषाविद् जयंत कोठारी ने संस्कृत से प्राकृत- अपभ्रंश और उससे गुजराती में हुए ध्वनि परिवर्तनों के उदाहरण दिए हैं।10 इसी के साथ हिंदी में हुए ध्वनि परिवर्तन को रखकर देखा जा सकता है। इन उदाहरणों से गुजराती हिंदी का संबंध भी स्पष्ट होगा –
संस्कृत प्रा. -अप. गुजराती हिंदी
ध्वनि परिवर्तन
अद्य ऋ का रि
ऋक्ष: रिच्छ रींछ रीछ
अनाद्य ऋ का इ
घृतम् घिउ घी घी
अलाद्य ऋ का अ
कृष्ण: कन्हु क्हान कान्हा
मृतिका मट्टिअ माटी माटी
ऐ का ए
तैलम् तेलं तेल तेल
औ का ओ
पौष: पोसो पोस पूस
ऊ का उ
वधू वहुअ वहु बहू
स्वश्रू सासुअ सासु सास
ओअ का ओ
सौवर्णम् सोन्नं सोनुं सोना
उअ का उव
कटुकं कडुवउं कडवुं कड़वा
इ का ए
तित्तिर: तेत्तरो तेतर तीतर
उ का ओ
पुस्कतं पोत्थउं पोथुं पोथी
कुद्दाल कोद्दोलो कोदालो कुदाली
क का लोप
लोहकार: लोहआरु लुहार लुहार
ग का लोप
भाण्डागार: भण्डाआरु भंडार भंडार
कोष्ठागार: कोट्ठाआरु कोठार कोठार
ज का लोप
राजिका राउअ राई राई
त का लोप
कातर: कायरु कायर कायर
माता माआ, माअ मा माँ
चातुर्मासकम् चाउमायउं चोमासुं चौमासा
जामातृकम् जामाइउ जमाई जमाई
द का लोप
पाद: पाउ पा पाव
कदली कयली केळ केला
हृदयकम् हिअयउं हैयुं हिया
ट का ड
कर्पटम् कप्पडु कापड कपड़ा
घटक: घडउ घडो घड़ा
घोटक: घोडउ घोडो घोड़ा
कर्कटिका कक्कडिय काकडी ककड़ी
प का व
वापी वावि वाव बाव
कूपक: कूवउ कूवो कुआ
दीपक: दीवउ दीवो दिया
अनाद्य क्ष का क्ख
लाक्षा लक्ख लाख(पदार्थ) लाख
भिक्षा भिक्ख भीख भीख
मक्षिका मक्खिअ माखी मक्खी
शिक्षा सिक्ख सीख सीख
कुक्षि: कुक्खि कूख कोख
अनाद्य श्व का च्छ
पश्चात् पच्छइ पछी पीछे
तिरश्चकम् तिरच्छउं तीरछुं तिरछा
अनाद्य ष्ट, ष्ठ का ट्ठ
प्रविष्टकम् पइट्ठउं पेठुं पेंठा
मृष्टकम् मिट्ठउं मिठुं(द्रव्य) मीठा
ज्येष्ठ: जेट्ठ जेठ जेठ
श्रेष्ठी सेट्ठि शेठ शेठ
ओष्ठ: ओट्ठो,होट्ठो होठ होठ
गुजराती और ब्रज शौरसेनी प्राकृत से अद्भूत होने के कारण इनकी ध्वनियों एवं शब्द रचना में भी समानता मिलती है। सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में गुजराती और हिंदी के बीच संबंध कृष्ण भक्ति आंदोलन के कारण भी विशेष गाढ़ हुआ। गुजराती के प्रथम कवि नरसी मेहता के कृष्ण निर्गुण और सगुण ब्रह्म के स्वरूप रहे हैं। लेकिन उनके बाद वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्गीय भक्ति के प्रचार प्रसार ने कृष्ण कथा और ब्रजभाषा को अखिल भारतीय परिदृश्य पर प्रतिष्ठित किया। इसके प्रभाव स्वरूप भारतीय भाषाओं के कवियों ने ब्रजभाषा सीखी और उसमें भी काव्य रचना की। गुजरात में भी तत्कालीन कवियों ने ब्रज में काव्य लिखे हैं। अखा, स्वामीनारायण संप्रदाय के कवि, दयाराम आदि कवियों ने ब्रज में काव्य रचना की है। इतना ही नहीं कच्छ के महाराज लखपत सिंह ने ब्रजभाषा पाठशाला 1749 ई. में स्थापना की थी, जिसमें कवियों को ब्रजभाषा की शास्त्रीय पद्धति से शिक्षा दी जाती थी। यह पाठशाला लगभग दो सौ वर्ष तक कार्यरत रही। इसने सैकड़ों कवि दिए और डिंगल पिंगल की काव्य परंपरा को महत्वपूर्ण प्रदान किया। इस ब्रजभाषा पाठशाला में उस समय के प्रसिद्ध कवियों और कलाकारों को आमंत्रित किया जाता था। काव्य, शिल्प, चित्र , संगीत, नृत्य का गहन अध्ययन करवाया जाता था। कवियों को 5 वर्ष के अध्ययन के बाद मौलिक रचना प्रस्तुत करनी होती थी। रचित रचनाओं में से कुछ इस प्रकार हैं :
हम्मीर सर बावनी – कवि गोप
काव्य प्रभाकर , रुक्मिणी हरण – कवि गोपाल
जयदेव पतिव्रता चरित्रावली बावनी- कवि मंडुभाई
वैराग्योपदेश बावनी- कवि जीवा बाई बीसा भाई
उपदेश बावनी -कवि श्याम जी ब्रह्मभट्ट
गुजराती और हिंदी में फारसी, अरबी शब्दों का बाहुल्य मुस्लिम व्यापारी, आक्रमणकारियों और उनके शासन के कारण विशेष रूप से दिखाई देता है। गुजरात पर आठवीं शताब्दी में अरब आक्रमण का उल्लेख मिलता है। पहला आक्रमण सन् 712 में मोहम्मद बिन कासिम ने किया था। गुजरात के सागर किनारे पर तब मुस्लिम व्यापारी आने लगे थे । 1000 ई. के आसपास फारसी बोलने वाले तुर्कों का पंजाब पर कब्जा हो गया था। 1025 ई. में मोहम्मद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर लूटा। मोहम्मद गौरी, खिलजी वंश, तुगलक वंश और मुगलों के आक्रमण और शासन का लगभग 1000 वर्ष का समय है। इन राजनीतिक कारणों से उत्तर भारत की बोलियों और गुजराती भाषा में फारसी, तुर्की ,अरबी (फारसी के माध्यम से) के शब्दों का समावेश प्रचुरता से हुआ। गुजराती और हिंदी में समाविष्ट फारसी, अरबी शब्दों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:
गुजराती11
राज्य और शासन व्यवस्था संबंधित शब्द-
जिल्लो, तालुको, इलाको, मुकदमो, अदालत, कानून, इनसाफ, कर, बार, फरमान, परवानो
पद-
वजीर, काजी, सूबो, दीवान, , शिरश्तेदार, बेगम, बादशाह
शस्त्र संबंधित-
शमशेर, म्यान, तीर, खंजर, तोप, तमंचों, चाकू
निर्माण कार्य-
मिनारो, बुरज, होज, फुआरो, किल्लो, महल, दीवाल, दरवाजो
खाद्य सामग्री एवं ऐश्वर्य की वस्तुएं-
हलवो, शराब, शरबत, जलेबी, अत्तर, सुरमो, जाजम, प्यालो, जलसो, कलगी
रोज व्यवहार की वस्तुएं-
खबर, जरूर, दुनिया, असर, असल, खरुं, हवा, याद, मेहमान, जलदी, तंदुरुस्ती, ताजगी, काबू
हिंदी12
इनाम, ईमान, फ़ुरसत, क़ानून, तेज़, ज़ोर, क़दम, मसला, मैदान, मौसम, मामला, माफ़िक, शामियाना, हुकुम, हवा, हुनर, मोहर्रम, मुहर, फेरिस्त, ख़जाना, जमा, ताबीज़, अजब, किताब, गरम, चाकर, जमा, तख़्ता, दाग़, पीर, बस्ता, फ़िरंगी, निमाज़, मीनार, रास, लाल, सिपाही, याद, काग़ज़, ख़ां, मियां, कीमत, खबर, गरीब, जालिम, रजाई, फारसी, निसान
आधुनिक भारतीय भाषाओं की समान सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि ने एक दूसरे को प्रभावित किया और प्रभावित हुई। शौरसेनी प्राकृत से गुजराती और पश्चिमी हिंदी के विकास के कारण अनेक समानताएं दृष्टिगोचर होती हैं, तो राजनीतिक और ऐतिहासिक संदर्भों ने भी दोनों के बीच आदान-प्रदान को संभव बनाया है।
संदर्भ :
1. डॉ. नामवर सिंह, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, पृष्ठ 4
2. ब्रजभाषा और गुजराती का पारिवारिक संबंध ,भारतीय साहित्य एवं संस्कृतिः अतः संवाद से उद्धृत, पृ. 52
3. हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, पृष्ठ 50-51
4. रघुवीर चौधरी, आंचलिक और आधुनिक, पृष्ठ 35- 36
5. वही, पृ. 36
6. हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, पृष्ठ 51
7. आनंदशंकर ध्रुव ,साहित्य विचार, पृष्ठ 113
8. गुजराती साहित्यनो इतिहास – खंड 1 पृष्ठ 40
9. वही , पृष्ठ 41
10. जयंत कोठारी,भाषा परिचय अने गुजराती भाषानुं स्वरूप, पृ. 97-130
11. वही, पृ. 123
12. डॉ. धीरेंद्र वर्मा, हिंदी भाषा का इतिहास, पृ. 201-205
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