दर्पण और अहम्

दर्पण और अहम् कविता में द्वन्द्व है। मन के रूपक अहम और सत्य के रूपक दर्पण के बीच, कवि का मन उसका अहम् दर्पण से अपने ही अहम् की लड़ाई लड़ता है। अंततः उसे आभास होता है कि अहम् तो जीत जाता है किन्तु फिर वह सत्य का बोध कराने वाले को खो देता है।


दर्पण अपनी सत्यता पर अडिग था,
और अहम् अपनी प्रवृत्ति में लिप्त था।

जब अहम् शील था, सुशील था,
दर्पण से उसका लगाव अनुकूल था,
समय का पहिया निरंतर चलता रहा।

दर्पण अपनी सत्यता पर अडिग था,
और अहम् अपनी प्रवृत्ति में लिप्त था।

कुछ समय का प्रभाव था,
कुछ सुसंगत का अभाव था।
ज्यों-ज्यों अहम् मार्ग से हटता गया,
त्यों-त्यों दर्पण से समभाव घटता गया।

जैसे-जैसे अहम् मलिन होता गया,
दर्पण से उसका स्नेह संकीर्ण होता गया।
दर्पण अपनी निष्ठा में अशर्त था,
अहम् अपने कृत्य में संलिप्त था।

अहम् का वर्चस्व बढ़ता गया,
दर्पण से उसका नाता घटता गया,
मुख दर्पण में, अहम् का धूमिल सा होता गया।

पहले तो अहम् ने उपनाम धरें,
अनेको कटु वचन और अपशब्द कहे।
दर्पण भी मुखर और प्रवीण था,
अहम् का ही मुख अधिक मलिन था।

अब अहम् का क्रोध कुछ था बढ़ चला,
ले कर पंक, दर्पण को रंजित किया।
दर्पण की बात भी थी एकदम अटल,

देखा अहम्, ने स्वयं का मुख, कीच में सना।
अब अहम् के क्रोध का पारा चढ़ा,
लेकर पाषाण, उसने मार दिया।
सन्न से दर्पण को जैसे घात हुआ,
छिन-भिन्न सा उसका अस्तित्व हुआ।
सहत्र भाग हुआ दर्पण हर भाग सत्य था।

अब अहम् एकदम मुक्त था, स्वतंत्र था,
किंतु दर्पण जैसा, कोई न उसका मित्र था।
कौन उसको, उसी का मुख दिखाए,
कौन उसको वास्तविकता का बोध कराए।

चिन्हित कर लो मित्र को, जो अडिग हो,
अपने मत से, सत्य पक्ष में, जो अटल हो।
खो दिया यदि मित्र, जो हो दर्पण जैसा,
सत्य का फिर बोध न होगा प्रतिबिंब जैसा।

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– हर्ष वर्धन गोयल (सिंगापुर)

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