
गुल्लक
मन में कहीं छिपे विहंग
चहक उठे फिर आज।
बचपन की उन यादों में
छिपे हैं अनगिन राज
उस गुल्लक के सिक्के
खनक उठे फिर आज।
मिट्टी की गुल्लक थी
अधिक नहीं था दाम
एक छोटे से बक्से में
वह करती थी आराम।
मेरे पैसों की रखवाली
करना था उसका काम
गोल-मटोल देह उसकी
बिन किसी टीम-टाम।
अम्मा के संग हर साल
जब मैं मेले में जाती थी
एक मिट्टी की गुल्लक भी
मैं खरीद कर लाती थी।
जब कोई मुझे पैसे देता
मैं उसमें डाल आती
कभी इकन्नी, कभी चवन्नी
पाकर मैं इतराती।
जब भी वह भर जाती
उसे ढोलक सी लुढ़काकर
मैं पुलकित होती रहती
उसे बार-बार घुमाकर।
घर में भाई-बहनों को
उसे छूने नहीं देती थी
यदि कोई मुझे चिढ़ाता तो
मैं अम्मा से कहती थी।
फिर चपत लगाकर वह
उनको डपट लगातीं
या कान खींचकर उनके
अक्सर वह समझातीं।
नया साल आने तक
मैं न कर पाती थी इंतज़ार
भारी होती गुल्लक को
मैं देती थी पटक कई बार।
मिट्टी के टुकड़ों के बीच
होता था पैसों का अंबार
उसे देखकर मेरी खुशी का
ना रहता था पारावार।
उन्हें भर लेती थी जेब में
कुछ रुमाल से लेती ढाँप
फिर खरीद लाती थी
कुछ टॉफी और लॉलीपॉप।
मन में कहीं छिपे विहंग
चहक उठे फिर आज।
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– शन्नो अग्रवाल