ओढ़ ली हैं चुप्पियाँ

ओढ़ ली हैं चुप्पियाँ
सिल गए अधर भी
एक से लगने लगे
घर भी – खंडहर भी ।

आँख से कह दिया
भूल जा भीगना
मन को समझा दिया
छोड़ दे रीझना

    रुंध गए कंठ में 
      शब्द भी –स्वर भी ।

बंद थी साँकलें
संवाद के द्वार की
गुंजाइशें न रही
उम्मीद को दरार की

   घूँट-घूँट पी लिया 
    धीर भी, सबर भी। 

न रही उलझनें
न कोई सवाल था
राग या विराग का
न कोई बवाल था

   अब तो कुछ बचा नहीं 
    इधर भी – उधर भी।  

बुद्ध सा पा लिया
चैन और सुकून अब
जोगियों सा भा गया
उन्माद और जूनून अब

 आसमां पे जा टिकी 
 सोच भी–नज़र भी । 

*****

– शशि पाधा

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