
ओढ़ ली हैं चुप्पियाँ
ओढ़ ली हैं चुप्पियाँ
सिल गए अधर भी
एक से लगने लगे
घर भी – खंडहर भी ।
आँख से कह दिया
भूल जा भीगना
मन को समझा दिया
छोड़ दे रीझना
रुंध गए कंठ में
शब्द भी –स्वर भी ।
बंद थी साँकलें
संवाद के द्वार की
गुंजाइशें न रही
उम्मीद को दरार की
घूँट-घूँट पी लिया
धीर भी, सबर भी।
न रही उलझनें
न कोई सवाल था
राग या विराग का
न कोई बवाल था
अब तो कुछ बचा नहीं
इधर भी – उधर भी।
बुद्ध सा पा लिया
चैन और सुकून अब
जोगियों सा भा गया
उन्माद और जूनून अब
आसमां पे जा टिकी
सोच भी–नज़र भी ।
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– शशि पाधा