शहीदों के बच्चे
बड़े हो जाते हैं शहीदों के बच्चे
बड़ा होने से पहले ही।
पढ़ लेते हैं माँ की आँखों की
मूक भाषा
जान लेते हैं मौन आह की
परिभाषा
रोक लेते हैं कोरों पे आँसू
ढुलकने से पहले ही
,फिर और बड़े हो जाते हैं शहीदों के बच्चे
उम्र से पहले ही।
बन जाते हैं माँ का रक्षा कवच
राह चलते चलते
देखते हैं चारों ओर
कुछ डरते डरते
चढ़ा देते हैं ड्योढ़ी पर साँकल
साँझ ढलने से पहले ही
यूं ही सब सीख जाते हैं मासूम बच्चे
सिखाने से पहले ही।
बड़े चाव से पहनते हैं पिता की वर्दी
लम्बी हो या बड़ी
गर्व से दिखाते हैं अलमारी में सहेजी
उनकी टोपी और छड़ी
जाने कैसे पूरे आ जाते हैं वो फौजी बूट
पाँव बढ़ने से पहले ही।
बस यूँही –
खो गया है कहीं दूर उनका
वो भोला सा बचपन
ढोते हैं भार हौंसलों का
हर रात, हर दिन
समेट लेते हैं कोरों पे सपने
नींद आने से पहले ही।
जाने क्या क्या सोचते हैं शहीदों के
सुबह होने से पहले ही
मन ही मन करते हैं
अपने जीवन से युद्ध
और भीड़ में ढूँढते हैं
कोई गाँधी या बुद्ध
समझ लेते हैं गीता का सार
समझाने से पहले ही
बस यूं ही बड़े होते जाते हैं वो बच्चे
उम्र से पहले ही।
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– शशि पाधा