
आशियाना
– दिव्या माथुर
नर्स एडवर्ड ने आशा को उठा कर गाव-तकियों के सहारे बैठा दिया और बिस्तर के दोनों तरफ़ लगी स्टील की शलाकाओं को उठा कर उसे व्यवस्थित कर दिया ताकि वह कहीं दाएं-बाएं न लुढ़क जाए; एडवर्ड अपने रोगियों के साथ पूरी सतर्कता बरतता है। उसकी बलिष्ठ बाहों में दुबली-पलती और दुर्बल आशा एक गुड़िया सी लगती है जिसे वह बड़े स्नेहपूर्वक उठाता-बैठाता, नहलाता और खिलाता-पिलाता है। एक पुरुष से और वह भी एक पुराने मित्र से अपना मल-मूत्र साफ़ करवाना और नहलवाना आशा को बिलकुल अच्छा नहीं लगता पर वह लाचार है; अपने शरीर पर उसका बिलकुल भी नियंत्रण नहीं। जब बदबु उसके नथुनों से टकराती है तो वह जान पाती है कि यह उसी के मल-मूत्र की है और टेलकम-पाउडर की खुशबु से वह जान पाती है कि एडवर्ड उसकी सफ़ाई करने के बाद पोतड़ा बाँध रहा है। वह उससे घंटों तक नज़र नहीं मिला पाती।
पैडिंगटन-लन्दन में हुई बस-बौम्बिंग में आशा की ग्रीवा चूर चूर हो गयी थी, वह ज़िंदा तो थी पर कोमा में। डाक्टर्स ने उसके बचने उम्मीद छोड़ दी थी। उसके पति, डाक्टर केशव, छोटी बेटी रैना और बेटे प्रभात ने दबे स्वर में अपनी मंशा प्रकट की थी कि बेहतर यही होगा कि आशा का लाइफ़-सपोर्ट-सिस्टम बंद कर दिया जाए ताकि वह शान्ति से मर सके किन्तु बड़ी बेटी लोरी और सहकर्मी एवं सहेली जूडी ने उनके इस निर्णय का ज़बरदस्त विरोध किया।
चार महीने के बाद जब आशा को होश आया तो एक दर्दनाक तथ्य ने उसे हिला कर रख दिया; गर्दन से नीचे के उसके सब अंग बेकार हो चुके थे – पूर्ण पक्षाघात यानी कि कुएड्रीप्लीजिया। उसके नर्स और डाक्टर दोस्तों ने, जिनमें केशव भी शामिल थे, तरह तरह की तिकड़में भिड़ा कर जितनी देर रख सकते थे, उसे अस्पताल में ही रखा, जहां पेस-मेकर जैसे महंगे उपकरणों और औषधियों के अतिरिक्त स्पीच-थैरेपिस्ट और फ़िज़ियो-थैरेपिस्ट की सेवाएं भी मुफ्त में उपलब्ध थीं।
काफ़ी समय तो आशा को यही सोचते बीत गया कि उसने ऐसा कौन सा कुकर्म किया था जिसकी इतनी बड़ी सज़ा दी भगवान ने उसे? इससे तो वह उसे उठा ही लेते या फिर शरीर के साथ उसके दिमाग़ को भी ख़त्म कर डालते! वह सब देख रही है, सुन और समझ रही है किन्तु कुछ कह नहीं सकती, कर नहीं सकती। एक बेहद सकरात्मक व्यक्ति के लिए भी अवसाद से छुटकारा पाना आसान नहीं होता।
शरीर को घावों और ब्लड-क्लौटस से बचाने के लिए आशा के हाथ-पाँव की मालिश करते वक्त एडवर्ड उसे बोलने के लिए भी उत्साहित करता। टेढ़ा-मेढ़ा मुंह बना कर बड़ी मेहनत से जो थोड़ा बहुत आशा कह भी पाती, वो किसी की समझ में नहीं आता, ख़ासतौर पर उसके परिवार वालों को, जिन्हें उसकी गों गों करती भद्दी आवाज़ को सुनने के लिए न तो धैर्य था और न ही फ़ुर्सत। न जाने कैसे एडवर्ड उसकी सब बातें झट समझ जाता है। उसे विश्वास है कि ऐसे आशा जैसे मरीजों का संगीत के माध्यम से इलाज संभव है। यदि भगवान उसे गाने लायक आवाज़ दे दें तो वह उसी के सहारे जी लेगी। ऐसी ही छोटी छोटी आशाओं और सपनों के सहारे कटते हैं आशा के रात और दिन।
आशा की करवट बदल कर जैसे ही एडवर्ड उसके सामने से हटा, खिड़की से झांकते हुए बीसियों पेड़ आशा के स्वागत में झूमने लगे, फ़ुंगियों पर बैठे पक्षी चहचहाने लगे। आसमान में चीलें उड़ रही थीं; शायद बारिश होगी और लो! देखते ही देखते बारिश शुरू हो गयी। धूप में गिरती हुई बौछार ऐसी लग रही हैं कि जैसे अबीर बरस रहा हो; चांदी के तारों में पिरी बूंदे आसमान से ज़मीन पर बरसने लगीं, बिलकुल वैसे ही जैसे उसके अपने ख़ूबसूरत घर, आशियाना, के पैटियो के फर्श पर जलतरंग बजा करता था। घर की याद आते ही वह उदासी से भर उठी; क्या कभी घर जा पाएगी? वो घर, जिसकी मॉर्गेज देने के लिए उसने सालों रात-रात भर का ओवरटाइम किया है, वो आशियाना जो उसे जान से भी प्यारा है।
नवम्बर का तीसरा हफ़्ता चल रहा था और पत्ते थे कि झड़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे, हाँ, पेड़ों ने रंग ज़रूर बदल लिए थे – गहरे उन्नाबी पत्तों के साथ लटके बैरीज़ के लाल और नारंगी गुच्छे कितने मनमोहक लग रहे थे! आशा कभी उन्हें तोड़कर शीशे के ग़ुलदस्तों में सजाती थी और केशव उस टोका करते थे कि जंगली बैरीज़ भी कोई सजाने की चीज़ हैं किन्तु ग़ुलदस्तों में लगे गुलाब के फूलों के बीच से झांकती रंग-बिरंगी बैरीज़ आशा को बहुत अच्छी लगती थीं। एडवर्ड से कहेगी कि कुछ गुच्छे तोड़कर उसके कमरे में सजा दे, पर नहीं, वह उससे कुछ नहीं कहेगी, बेचारे पर वैसे ही काम का इतना बोझ है।
हाँ बोझ, जो सबका बोझ हरने को हर दम तैयार रहती थी, अब स्वयं एक बोझ बन गयी थी आशा। जब से उसे होश आया, केशव उसे भागते-दौड़ते देखने आते हैं कि जैसे औपचारिकता निभा रहे हों किन्तु उसकी बचपन की सहेली जूडी, जो आशा के साथ ही अस्पताल में नर्स थी, और लोरी, दोनों को जब भी समय मिलता, उसे देखने आ जातीं।
‘आई कांट टेक इट ऐनी मोर।’ कहते हुए प्रभात ने विदा ली थी और लन्दन छोड़ अमेरिका में जा बसा था कि उसे मां की देखभाल न करनी पड़े। रैना का रवैय्या भी यही है, उसका बस चले तो वह माँ से फ़ोन पर भी बात न करे। यह सोच कर कि आशा का मन बहल जाएगा, एडवर्ड फ़ोन पर सभी बच्चों से उसकी बात करवाता रहता है, वो भी अपने खर्चे पर; केशव से उसकी कभी नहीं पटी। जब वे कालेज में थे, आशा और जूडी चाहती थीं कि जब भी वे पार्टी करें, उसमें एडवर्ड भी शामिल हो पर केशव को यह बात सदा नागवार गुज़रती थी।
‘मैं जानता हूँ कि केशव मुझे क्यों पास नहीं फटकने देता,’ एडवर्ड ने एक बार आशा से कहा था।
‘क्यों?’ जूडी ने पूछा था।
‘क्योंकि वह जानता है कि मैं आशा से उससे कहीं अधिक प्यार करता हूँ,’ एडवर्ड बोला।
आशा शर्म से लाल हो उठी।
‘मैं तो मज़ाक कर रहा था,’ कहता हुआ एडवर्ड वहाँ से हट गया था। केशव के प्यार में अंधी आशा को एडवर्ड का अप्रतिम प्यार कभी दिखाई ही नहीं दिया। सचमुच, कितना चाहता होगा एडवर्ड उसे कि वह बिना नाक-भौं चढ़ाए, महीनों से उसके पोतड़े बदल कर उसे रोज़ साफ़ करता है।
आशा कम से कम भोजन करती है ताकि एडवर्ड को उसकी बार बार सफ़ाई न करनी पड़े किन्तु वह भी बला का ज़िद्दी है।
‘तुम्हें जल्दी से ठीक होना है कि नहीं, ख़त्म करो अपना सूप और ब्रेड,’ अथवा ‘फल और सब्जियां बहुत ज़रूरी हैं तुम्हारी सेहत के लिए,’
कुछ वर्ष पूर्व, एक शाम को यूथीनेसिया के विषय में बात चल रही थी तो आशा ने कहा था कि एक हिन्दू होने के नाते वह ह्त्या अथवा आत्महत्या के विषय में सोच भी नहीं सकती, यह पाप है।
‘बुलशिट, मम्मी, पाप और पुन्य कुछ नहीं होता, इतना पढ़ लिख कर भी आपने बस भाड़ झोंका।’ प्रभात बिलकुल अपने पिता के लहज़े में बात करता था।
‘जो मरीज़ चौबीसों घंटे तकलीफ़ में जी रहे हैं, उनके लिए यही अच्छा है कि उन्हें इंजेक्शन देकर दर्द से निजात दिला दी जाए,’ केशव बोले थे।
‘यह हमारे एथिक्स के खिलाफ़ है, पूर्वानुमान के आधार पर मृत्यु का वरण कर लेना अनुचित है, मैंने ऐसे ऐसे रोगी ठीक होते देखे हैं, जिनके ठीक होने की कोई संभावना नहीं थी,’ जूडी ने कहा था।
‘एथिक्स हमारे ही बनाए हुए हैं…,’
‘यूथीनेसिया को यदि वैध करार दे दिया गया तो ताकतवर लोग अपने रस्ते के रोड़ों को अपने रास्ते से हटवाने में कामयाब हो जाएंगे,’ लोरी बोल उठी थी।
‘आजकल लोगों में धैर्य तो बचा ही नहीं है, ज़रा सी भी तकलीफ़ होने पर वे मौत के इंजेक्शन के लिए पहुँच जाएंगे स्विट्ज़रलैंड।’ जूडी ने कहा।
एक नर्स होने के नाते आशा जानती है कि उसका इलाज असंभव है। कभी-कभी उसके मन में आता है कि जूडी अथवा एडवर्ड से इस बारे में बात करे किन्तु वह जानती है कि, कैथलिक होने से अधिक, दोस्तों के नाते वे इस काम में उसकी मदद करने के लिए किसी भी सूरत में राज़ी नहीं होंगे। लोरी को आज भी भरोसा है कि डाक्टरों के नैगेटिव प्रौग्नोसिस के बावजूद वह एक दिन उठने-बैठने लायक हो जाएगी। हाँ, केशव उसकी मरने में मदद अवश्य कर सकते हैं पर वह पत्नी से बात करना तो दूर, उससे एक छूत के रोगी सा व्यवहार करने लगे हैं।
करीब छै महीनों बाद, केशव और जूडी के बहुत हाथ पाँव मारने के बावजूद, एक सुबह आशा को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। आशा का मन कुहुक उठा कि अब वह वापिस अपने ‘आशियाना’ में जा पाएगी किन्तु केशव का इरादा कुछ और ही था; इस बात को लेकर बेटियों और केशव में ख़ूब झगड़े हुए।
‘महीने के एक हज़ार पाउंडस तो भैया ही भेज रहा है, वो क्या कम होते हैं? एक पार्ट-टाइम नर्स से काम चल जाएगा और हम लोग भी आते जाते रहेंगे,’
लोरी माँ को बता चुकी थी कि कैसे केशव ने ‘इमोशनल-ब्लैकमेल’ द्वारा प्रभात को एक हज़ार पाउन्ड्स बिना नागा भेजने के लिए मना लिया है। केशव पैसों के मामले में सदा से कंजूस रहे हैं; वह अपने हिस्से के खर्चे की भरपाई का भी कोई न कोई विकल्प निकाल ही लेंगे। लेकिन इन दिनों एक हज़ार पाउन्ड्स की कीमत ही क्या है? लोरी की तनख्वाह इतनी नहीं है कि वह कुछ सहयोग दे सके। रैना के पास न तो माँ के लिए समय है और न ही पैसे।
‘इतनी ही फ़िक्र है तुम्हें अपनी माँ की तो तुम क्यों नहीं रख लेतीं उन्हें अपने पास?’ केशव बोले।
‘वो आपकी बीवी हैं, आशियाना में आधा हिस्सा उनका भी है, वह यहाँ क्यों नहीं रह सकतीं?’ रैना भन्ना उठी।
‘आधे से कहीं अधिक, पापा, आप तो बस आधी मॉर्गेज भर देते थे, बाकी का सारा खर्चा माँ ही चलाती थीं,’ लोरी ने कहा।
‘यहाँ खर्चे और मॉर्गेज की बात नहीं हो रही है और न ही मैं उसे घर से बेदखल करने की बात कर रहा हूँ। तुम दोनों जानती हो कि ऐसे रोगियों की देखभाल घर में नहीं हो सकती, क्या तुम कर सकती हो उसका टट्टी-पेशाब साफ़? उसे घर में लाना नामुनासिब है,’ अपना फ़ैसला सुना कर केशव घर से निकल गए।
केशव के इस निर्णय को सुनाने के लिए भी जूडी आई थी; आशा हिचकियाँ ले लेकर रो उठी; क्या वह कभी अपने घर वापिस नहीं जा पाएगी? उसकी एक नन्ही सी आशा पर भी पानी फिर गया था; ऐसे जीने का क्या फ़ायदा?
‘आशा, तुम फ़िक्र नहीं करो, मैंने तुम्हारे लिए एल्स्बरी में एक बड़ा अच्छा प्राइवेट हौस्पिस ढूंढ निकाला है, जो तुम्हें बहुत पसंद आएगा। लन्दन से ज़्यादा दूर नहीं है, सब लोग तुमसे नियमित मिलने आ जा सकते हैं,’ आशा को अपने सीने से लगाए हुए जूडी ने उसे आश्वासन दिया किन्तु आशा जानती है कि जो लन्दन में रहते हुए उसे देखने नहीं आ पाते, वे पैंतालीस-पचास मील ड्राइव करके एल्स्बरी कहाँ पहुंचेंगे।
‘पर जूडी, प्राइवेट हौस्पिस और नर्स का ख़र्चा केशव और बच्चे कैसे उठाएंगे? तुम तो जानती हो कि सोशल-सिक्योरिटी-अनुदान आटे में नमक के बराबर है। तुम लोग मुझे मेरे घर ही क्यों नहीं ले चलते? केवल एक पार्ट-टाइम हेल्पर से काम चल जाएगा,’ स्पीच-थेरापिस्ट की मदद से आशा का उच्चारण काफ़ी सुधर चुका है किन्तु कोई उसकी बात सुनने और समझने को तैयार तो हो।
‘केशव का कहना है कि तुम्हारी देखभाल घर पर नहीं हो सकती,’ आशा को लगा कि जूडी बड़ा नाप तोल कर बोल रही थी। क्या छिपा रही थी वह आशा से? कहीं केशव के सम्बन्ध किसी और से तो नहीं जुड़ गए? शायद इसीलिए वह उसे घर नहीं आने दे रहा। आशा बहस नहीं करने की अवस्था में नहीं थी; अधिक बोलने से उसकी सांस उखड़ने लगती है।
जूडी उसकी अन्तरंग मित्र थी, आशा और केशव के विवाह का माध्यम भी वही बनी थी क्योंकि आशा बहुत शर्मीली थी। कहाँ गए वो ख़ूबसूरत दिन, जब वे तीनों हर शाम को खूब धमाल किया करते थे? क्या हो गया है अब इन दोनों को? केशव से वह ऐसी अपेक्षा कर सकती थी किन्तु जूडी से नहीं, कुछ तो है जो वह उससे छिपा रही है। कभी-कभी, लगता है कि लोरी भी कुछ कहना चाहती है पर फिर न जाने क्या सोच कर चुप हो जाती है। इतने सारे प्रश्न आशा के दिमाग़ को मथा करते हैं, कोई तो उसे बताए कि वह अपने घर में क्यों नहीं रह सकती? कन्ज़र्वेटरी में यदि उसका बिस्तर लगा दिया जाए तो वह अपना शेष जीवन पेड़ों और पक्षियों से बातें करते गुज़ार देगी।
आशा की गुहार को नज़रंदाज़ कर दिया गया। जूडी की जान पहचान के एक किफ़ाइती नर्सिंग-होम के एक किफ़ाइती कमरे में आशा के रहने का प्रबन्ध हुआ। एडवर्ड बुखानेन, जो अब अस्पताल की नौकरी से रिज़ाइन कर प्राइवेट काम करने लगा है, आशा की देखभाल के लिए मान गया और वो भी बहुत कम पैसों में। कहने को तो वह सुबह तीन और शाम को एक घंटे के लिए आशा के पास रहता है, दिन में एक दो बार घूमता-घुमाता वह उसके कमरे में झाँक लिया करता है। उसे दो अन्य मरीजों की भी देखभाल के लिए जाना पड़ता है क्योंकि मॉर्गेज और बिल्स चुकाने के लिए आशा के परिवार से मिले पैसे काफ़ी नहीं होते।
जब कभी दरवाज़े पर दस्तक होती, आशा सोचती कि आख़िर याद आ ही गई केशव को उसकी किंतु दुनिया भर के लोग उसकी खैरियत पूछने के लिए आए, जो नहीं आए उन्होंने खूबसूरत गेट-वैल कार्ड्स और फूल भेजे किन्तु केशव उसका हाल-चाल पूछने को भी राज़ी नहीं था। वक्त वक्त की बात है, एक वक्त ऐसा भी था कि केशव दो तन एक जान हुआ करते थे, हर दम साथ। अब कहाँ है उसका जीवन साथी? कहाँ नदारद हो गयी उसकी प्यारी सहेली, जिसके बिना हलक से एक निवाला नहीं उतरता था?
रैना अपने पति रिक्की और दो बेटों के साथ मूर-पार्क में ही बसी है, केवल पच्चीस मील दूरी पर, वह कौन सा मिलने आती है? हफ़्ते में एक बार एडवर्ड के माध्यम से उससे फ़ोन पर बात होती है, उस दौरान भी वह माँ को जताती रहती है कि वह कितनी व्यस्त है।
एक लोरी ही है जो हफ़्ते में दो या तीन मर्तबा चक्कर लगाती है किंतु आशा को उसका श्री-लंकन ब्वाए-फ़्रैन्ड रौन्नी एक आंख नहीं भाता। उसे लोरी की नहीं, उसके फ़्लैट की ज़रुरत है। न जाने क्यों एक मरे बन्दर सा उसे चिपकाए है लोरी? पिछली बार मिलने आई थी तो वह भूल से अपने बगीचे की बत्तियां जली छोड़ आई थी। इस बात को लेकर उसके ब्वाए-फ़्रैंड ने फ़ोन पर उससे इतनी बहस की कि जल्दी में वह माँ को लिटाए बिना ही चली गयी। आशा ने पूरी रात बिस्तर पर बैठे गुज़ारी; यदि वह इमरजेंसी बटन दबाती तो वार्डन एडवर्ड को डांटती कि वह उसे बिना लिटाए कैसे चला गया। अगली सुबह जब एडवर्ड ने उसे बैठा देखा तो वह रो पड़ा। चुपचाप वह देर तक आशा की दर्द से तनी हुई गर्दन की मालिश करता रहा।
‘लोरी, आजकल घर की देख-रेख कौन करता है? हर हफ्ते माली तो आता ही होगा? मेरा गार्डन कहीं जंगल तो नहीं बन गया?’ नित नए बहाने से आशा घर और केशव के विषय में पूछा करती।
‘मम, तुम बस जल्दी से अच्छी हो जाओ, फिर खुद संभाल लेना अपना घर और गार्डन,’ कह कर लोरी बात टाल जाती।
एडवर्ड आशा को दलिया खिला कर नैपकिन से उसके होंठ पोंछ ही रहा था कि उसका मोबाइल-फ़ोन बजने लगा।
‘क्या? मैं अभी आ रहा हूँ,’ एडवर्ड को परेशान देखकर आशा समझ गई कि उसकी बेटी डोरा के स्कूल से फ़ोन आया होगा। डोरा बुरी सोहबत में फंस गई थी और तलाक़शुदा एडवर्ड का उसने नाक में दम किया हुआ था।
‘तुम जाओ, एडवर्ड, मेरी चिंता मत करो,’ आशा ने कहने की कोशिश की। जाने से पूर्व, एडवर्ड आशा को ठीक से लेटा कर जाना चाहता था किंतु आशा ने उसे मना कर दिया। सीधा लेटकर उसे सिर्फ़ कमरे की छत और दीवारें ही दिखाई देती थीं। धूप हो तो पेड़ों की हिलती-डुलती शाख़ों की परछाइयां दीवारों पर दिखाई देती हैं, जिनसे आशा बतियाती रहती है। उन्हें अपने पति और बच्चों की सफ़लता के बारे में बताते हुए वह फूली नहीं समाती किंतु जब वे पलट कर उससे पूछते हैं कि वे सब हैं कहां तो वह ख़ामोश हो जाती है।
‘हम तो आ नहीं सकते तुम्हारे कमरे में; तुम ही आओ न कभी बाहर बाग़ में, हमें अच्छा लगेगा यदि तुम भी दो घड़ी हमारी छाया में आकर बैठोगी।’ आशा का मन बहलाने की ख़ातिर वे उसे रोज़ निमंत्रण देते हैं।
‘बाबा, मेरा हाल तो तुमसे कहीं बद्तर है, तुम्हारी डालियाँ और पत्ते झूम सकते हैं, मैं तो अपनी उंगली तक नहीं हिला सकती। तुम्हारी छाया में आकर बैठ सकती तो क्या मैं बिस्तर पर लेटी होती?’
‘हम भी तो, बेटी, सैंकड़ों बरसों से बस यहीं खड़े हैं। अब तो बस एक ही आस है कि हम किसी सकारथ लग जाएं तो जानें कि हमारा जन्म सफल हुआ,’
‘बाबा, इस उम्र में भी तुम्हें सब चाहते हैं, तुम्हारी पूजा करते हैं, तुम्हारे पास आकर बैठते हैं पर मेरी किसी को ज़रूरत नहीं; आज मरी कल दूसरा दिन,’
‘ऐसा क्यों कहती हो, बेटी, तुम्हारे पति और बच्चों को तुम्हारी ज़रूरत है और वह एडवर्ड जो तुम्हारी तीमारदारी में दिन रात एक किए रहता है,’
‘मेरी मृत्यु पर उसे कोई और मरीज़ मिल जाएगा, यह उसका काम है,’
‘ऐसा न कहो बेटी, हमने बहुत सी नर्सों को देखा है जो मरीज़ों को हमारी छाया में बैठाकर घंटों उनकी ख़बर नहीं लेते। तुम बहुत भाग्यवान हो कि एडवर्ड तुम्हारा नर्स है,’
जो बात वह एडवर्ड से नहीं कर पाती, आशा पेड़ों से किया करती है; ये पेड़ आशा के पासबाँ हैं; हमराज़ हैं।
एडवर्ड को बहुत से हिन्दी गीत आते हैं; सुबह मुस्कुराता हुआ एडवर्ड पर्दे हटाता हुआ, ‘हाल कैसा है जनाब का?’ गीत गाता है तो आशा के दिलो-दिमाग़ का अन्धेरा छंट जाता है।
‘क्या ख़याल है आपका?’ एक सुबह मज़ाक में आशा ने गाकर जवाब दिया तो एडवर्ड खुशी में नाचने लगा और यह बात दुनिया भर को बताता फिरा।
फिर एक दिन लोरी ने बताया कि प्रभात की नौकरी जाती रही है और जब तक उसे कोई नौकरी नहीं मिल जाती, वह पैसे नहीं भेज सकता। वह लन्दन वापिस आ रहा है।
आशा के मन में फिर एक कोंपल फूटी कि पैसों के अभाव में शायद उसके रहने की व्यवस्था अब उन्हेंन आशियाना में ही करनी पड़े। भगवान ने प्रभात को शायद आशा के जीवन में प्रभात लाने के लिए वापिस बुलाया हो।
‘रैना और मैंने पापा से कहा है कि वह आशियाना को बेच दें ताकि हम आपको एक अच्छे से सैनिटोरियम में रख सकें,’
आशियाना को बेचने की बात सुनकर, आशा और भी उदास हो उठी। शायद यह तजवीज़ लोरी के ब्वाय-फ्रैंड ने सुझाई हो या फिर रैना ने केशव से अपना हिस्सा माँगा हो।
‘लोरी, मैं किसी सैनिटोरियम में नहीं, अपने घर आशियाना में रहना चाहती हूँ,’ हिम्मत करके आशा ने कहा, ‘प्लीज़, अपने पापा तक मेरी बात पहुंचा दो,’
‘मम, आप क्यों नहीं समझना चाहतीं, उस घर में अब आपके लिए कोई जगह नहीं है, उसका बेचना ही आपके लिए और हम सबके लिए अच्छा होगा,’
‘क्या मतलब?’ आशा का दिल उछल कर जैसे बाहर आ खड़ा हुआ।
‘पापा अब वहाँ जूडी के साथ रह रहे हैं और वह नहीं चाहते कि हम में से कोई भी वहाँ झांके भी। इसीलिए हम चाहते हैं कि उस घर को जल्दी से जल्दी बेच दिया जाए ताकि… ‘
जैसे एक बड़ा सा झाड़-फ़ानूस टूट कर यकायक छन्न से गिर जाए, आशा के दिलो-दिमाग़ में जैसे एक और बम फूटा हो; चूर चूर करते हुए उसके रहे-सहे अस्तित्व को। अपमान, क्रोध, जलन, दुर्भावना, ईर्ष्या और प्रतिहिंसा जैसी भावनाओं से गुज़रते हुए उसे लगा कि जैसे उसके सारे अंग फड़क-फड़क कर प्रतिशोध पर उतर आए हों। डेज़ी? डेज़ी ऐसा नहीं कर सकती। वह मुझे बता तो सकती थी? दोस्ती पर से जैसे आशा का विश्वास उठ गया हो।
‘तुम फ़िक्र न करो, माँ, मैं तुम्हें ज़रूर न्याय दिलवाऊँगी। मैंने एक बहुत अच्छे वकील से बात की है। मुझे इस पावर-ऑफ़-अटर्नी पर बस तुम्हारे साइन, तुम्हारे अंगूठे का निशान चाहिए, फिर देखना मैं कैसे उन दोनों की ऐसी की तैसी…’
ये कागज़ात यदि उसकी मौत के होते तो आशा खुशी-खुशी इन पर अपना अंगूठा लगा देती। उसका परिवार भी तो यही चाहता है कि किसी तरह उसका क़िस्सा ख़त्म हो। अंगूठा लगाने के बाद जो एक सम्बन्ध बचा था, आशा ने वह भी खो दिया।
आज आशा का पचासवां जन्मदिन है। डोरा सुबह से गुब्बारों, फूल और रंग बिरंगे रिब्बनस से उसका कमरा सजाने में लगी है। एडवर्ड ने एक बड़ा सा केक रसोई में छिपा कर रखा है। बिना उसे बताए, एडवर्ड ने आशा के पूरे परिवार को निमंत्रित किया है और वे सब यह सोच कर आ पहुंचे हैं कि एडवर्ड ने शायद उन्हें आशा से आख़िरी बार मिलने के लिए बुलाया हो। उसे अच्छी ख़ासी हालत में देख, वे सब ऐसे सहमें से खड़े हैं कि जैसे किसी ने उन्हें मौत की सज़ा सुना दी गयी हो। इस अवसर पर हौस्पिस के डाक्टर, वार्डन, फ़िज़ियो-थेरापिस्ट और स्पीच-थेरापिस्ट भी मौजूद हैं।
‘मेक ऐ विश,’ एडवर्ड और डोरा चहके।
‘डोरा, तुम सबसे छोटी हो यहाँ, आंटी की तरफ़ से तुम मोमबत्ती को फूंक मारो,’ आशा की परेशानी भांप कर एडवर्ड ने डोरा से कहा।
आशा को लगा कि जैसे अपने ही आंसुओं में नहाई हुई मोमबत्ती धुंआ छोड़ती बुझ गयी, उसका अंत भी ऐसा ही होना है।
‘हियर यू गो, आंटी, आँखें बंद करके विश मांगिए,’
‘आपने क्या विश माँगी, मम?’ लोरी ने पूछा।
‘मेरी बस एक ही इच्छा है कि मेरी मृत्यु आशियाना में हो,’
‘बस इतनी सी बात, वो तो हम सब आज ही पूरी कर देते हैं, क्यों पापा?’ लोरी ने जल्दी से केशव और जूडी की ओर देखते हुए पूछा।
‘क्यों नहीं, यही ठीक रहेगा,’ प्रभात ने जूडी को गहरी नज़रों से देखते हुए कहा। लोरी बता रही थी कि प्रभात को जूडी का घर में आ बसना बिलकुल अच्छा नहीं लगा था। केशव ने कोई प्रतिक्रया नहीं दिखाई किन्तु सकपकाई हुई सी जूडी इस वक्त बाहर जाने का रास्ता ढूंढ रही थी।
‘सुनो जूडी, तुम्हें परेशान होने की कोई ज़रुरत नहीं है। मुझे तुम्हारे और केशव के संबंधों पर भी कोई आपत्ति नहीं है, तुम हमारे साथ रह सकती हो,’ आशा ने कहा। यह सुन कर जूडी के आंसू बरसने लगे।
‘आई एम सो सौरी, आशा, प्लीज़ मुझे माफ़ कर दो, मैंने…हमने तुम्हें कितना दुःख पहुंचाया है…पर…’ जूडी के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। केशव मुंह बाएँ ख़ामोश खड़े रहे। आशा से नज़र मिलाने के लिए वह शायद हिम्मत जुटा रहे थे।
‘आशा आंटी, आज आप कुछ और भी मांगती तो आपको वो भी मिल जाता,’ उत्साहित होते हुए डोरा बोली।
‘डोरा, मेरे हिस्से की सारी ख़ुशियाँ भगवान तुम्हें दें; थैंक यू सो मच। मुझसे मिलने आओगी न? और हाँ, अपने पापा को तंग नहीं करना, ही इज़ ए रियल एंजल, सचमुच,’
‘ज़रूर, आशा आंटी, जिस आशियाना में जाने को आप इतनी बेकरार हैं, उसके दर्शन करने तो मुझे आना ही पड़ेगा न,’
अगली ही सुबह, आशियाना की कन्ज़र्वेटरी में लेटी आशा पेड़-पौधों से बतिया रही थी, ‘क्या तुमने भी मुझे उतना ही मिस किया जितना की मैंने?’
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