
एक था मुर्गा
– दिव्या माथुर
डाक्टर पीटर्स के रोगनिदानुसार टिनिटस का सम्भवतः कोई इलाज न था; कैसे जी पाएगी अक्षता अपने कानों में इस शोर के साथ? जैसे-जैसे सांझ ढलती, समन्दर की उद्द्ंड लहरेँ आक्रमक हो उठतीं; कभी-कभी तो उनका उत्पात इतना बढ़ जाता कि वे चट्टानोँ तक से टकरा जातीं और उन्हें समन्दर में डुबा मारने में कोई कसर न छोडतीं। बियाबां की सायं-सायं करती हवा की सीटियां और पेड़ों को जड़ से उखाड़ देने वाले बवंडरों का शोर अक्षता के कानों से होकर उसके मस्तिष्क में पैठ जाता। कितने शौक से आई थी वह इंगलैंड कि यहां न कोई ग़म होगा और न कोई कहने सुनने वाला। उसकी सहेलियों के शब्दों में उसकी तो ‘बस अब मौजां ही मौजां’ थीं किंतु जिस शोर के साथ वह हीथ्रो हवाई-अड्डे पर उतरी थी, वह शोर उसका किसी तरह से पीछा छोड़ने को तैय्यार न था।
‘अंशु, यू हैव ब्रौट सच ऐ लौट फ़्रौम इंडिया, वन शुड औल्वेज़ ट्रैवल लाइट,’ विंस्टन मज़ाक में अक्षता से कहता तो वह चिढ़ जाती।
हथेलियों से अपने कानों को कस कर बंद कर लेने के बावजूद शोर कम नहीं होता था। दादी-मां कहा करती थीं कि किसी काम में अपने को पूर्णतः झोंक दिया जाए तो दुख-दर्द महसूस नहीं होता। कैसी अटपटी सी कहानी थी जो बचपन में दादी-मां उसे सुनाती थीं।
‘एक मुर्गा था। एक दिन राजधानी मेँ उसने राजकुमारी को देखा तो बस उसे देखता ही रह गया। मन ही मन उसने ठान ली कि वह शादी करेगा तो राजकुमारी से ही, नहीँ तो वह आजीवन कुंवारा ही रहेगा।’ अक्षता अपना सिर दादी-मां की गोद में रखकर लेट जाती और उनकी गुदगुदी उंगलियां उसके घने बालों को सुलझाने लगतीं। कभी सिर तो कभी माथा, तो कभी पीठ, दादी-मां की उंगलियां मानो उसे सहलाते थकती ही न थीँ।
‘तो जनाब, राजा से मिलने के लिए मुर्गा चल दिया राजधानी।’
‘राजा से मिलने? तुम तो कह रही थी कि वह राजकुमारी से शादी करना चाहता था?’ अक्षता को कहानी के बीच राजा का व्यवधान बिल्कुल पसन्द न था।
‘लाडो रानी, राजकुमारी का हाथ तो वह राजा से ही मांगेगा के नईं?’ दादी-मां को जब लाड़ उमड़ता तो वह पोती को ‘लाडो रानी’ कहकर पुकारतीं थीं, जिससे उसके मम्मी-पापा को, जो उसे ‘अंशु’ कहकर बुलाते थे, बहुत खीज होती थी।
‘दादी-मां, मुर्गे को क्या राजकुमारी का बस हाथ ही चाहिए था?’
अक्षता कभी-कभी दादी-मां को इतना खिजाती कि उसके सिर पर चलती उनकी उंगलियां यकायक रुक जातीँ। वह दादी-मां का हाथ पकड़ कर वापिस अपने सिर पर रख लेती और दादी-मां की कहानी फिर से शुरु हो जाती।
‘रस्ते में उसे नदी मिली। नदी ने पूछा, ‘मुर्गे मुर्गे कहां चले, यूं बने ठने?’
मुर्गे ने जवाब दिया, ‘राज-घराने, राजकुमारी से ब्याह रचाने।’
‘मेरे प्यारे भांजे, क्या तुम मुझे बारात में नहीँ ले चलोगे?’
‘क्योँ नहीं, नदी मौसी, तुम्हारा पानी पी पीकर मैँ बड़ा हुआ हूं, भला तुम नहीँ चलोगी तो कौन चलेगा मेरी बारात में? आओ बैठ जाओ मेरे कान में।’ और नदी मुर्गे के कान में बैठ गई।
जंगल में उसे शेर मिला। उसने गुर्रा के पूछा, ‘ए मुर्गे ज़रा इधर तो आ, यूं सजा-धजा तू किधर चला?’
मुर्गे की क्या औकात थी कि शेर को मना करता। ‘क्योँ नहीं, शेर-दादा जी, आप हमारे साथ चलोगे, तो हम सब ही की हिम्मत बंधी रहेगी। आइए बैठिए मेरे कान में।’
जब तक मुर्गा राजधानी पहुंचा, उसके कान में नदी, चींटियां, घोड़े, शेर, आग, बरसात इत्यादि सब मिलकर बन्ने-बन्नियां गा रहे थे, ‘बन्ने तेरे बाबा लाख हज़ारी, बन्ने तेरी दादी नख़रे वाली।’
हर रात वही एक कहानी अक्षता को दादी-मां ख़ूब रस ले लेकर सुनातीं। पशु-पक्षियों की आवाज़ों की नकल उतारने में वह सिद्धहस्त थीं और अपने गीतों के भंडार से निकालतीं थीं नित नए गीत और बन्ने-बन्नियां। उनकी आवाज़ ज़्ररा भी सुरीली नहीं थी किंतु उनके गाने का अंदाज़ अक्षता का मन मोह लेता था; चटख़ारे ले लेकर और आंखें नचाते हुए वह शून्य में इशारे करती हुई कुछ यूं गातीं थीं कि जैसे बन्ना-बन्नी और परिवारजन उनके सामने बैठे हों, ‘बन्ने तेरे नाना तांगे वाले, बन्ने तेरी नानी भैंगी काली…’ अक्षता हंसते हंसते लोट-पोट हो जाती।
मम्मी-पापा का घर लौटने का कोई समय तो बंधा नहीँ था; देर रात गए जब वे अक्षता के कमरे में आते तो इस हालत में तो क़तई नहीँ होते थे कि कि बेटी से ठीक से बात कर पाएं। बिना यह देखे कि अक्षता बिस्तर में थी भी कि नहीं, अन्धेरे में कई मर्तबा वे उसके तकिये को ही चूमकर ‘गुड्नाइट’ कहते हुए चल देते थे; दादी-मां से कहानी सुनते-सुनते वह उन्हीं से लिपटकर सो चुकी होती थी। सुबह-सुबह बेचारी दादी-मां की शामत आ जाती; मम्मी कहतीं कि अक्षता को उन्होंने अपने सिर पर चढ़ा रखा था।
‘दादी-मां ने थोड़े ही बुलाया था मुझे अपने पास, डर के मारे मैँ ही उनके पास सो गई थी।’ अक्षता कहती।
‘देखा आपने? कैसी ज़ुबान चलने लगी है दादी की लाड़ली की।’
‘अक्षता को आप कब तक अपने साथ सुलाएंगी?’ पापा भी मम्मी का साथ देते तो अक्षता को बहुत ग़ुस्सा आता। ऐसे में दादी-मां अक्षता को इशारे से चुप रहने को ही कहतीँ तो उसे हैरानी होती कि कोई कैसे इतना अन्याय सहन कर सकता था। उन्होंने एक बार उसे बताया था कि बात बढ़ाने से कोई फ़ायदा नहीं होता।
जन्मदिन, दीवाली और क्रिसमस पर अक्षता के लिए महंगे तोहफे लाकर मम्मी-पापा अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते थे। दादी-मां की देख-रेख में ही अक्षता बड़ी हुई थी और उसके जीवन का एक बड़ा हिस्सा थीं लोक-कथाएं और लोक-गीत। दादी-मां उसे विवाह के रस्मों-रिवाज़ बड़े ख़ुलासे के साथ बतातीं थीं। इधर बन्ने के यहां लगन चढ़ी, ‘लगुन आई हरे हरे, लगुन आई मेरे अंगना, रघुनन्दन फूले न समाए’, तो उधर बन्नो के यहां भात चढ़ा, ‘मेरा छोटा सा भैय्या भात ले के आया ज़रा देखना,’ इधर बन्ने ने सेहरा पहना, ‘महफ़िल में जाके कह को बन्ने के जीजाजी से, दोनों हाथों से उठा लाएं लड़ी सेहरे की,’ तो उधर बन्नी विदा हुई, ‘काहे को ब्याही बिदेस, अरी लखिया बाबुल मेरे।’
दादी-मां दूल्हा और दुल्हन दोनों के अखाड़ों में समान रूप से व्यस्त रहतीं; इधर दूल्हे की भाभी को वह काजल-अंजाई की याद दिलातीं तो उधर बहनों को उकसातीं कि वे घोड़े को दाना खिलाने की एवज में सोने की बालियों से कम पर राज़ी न हों।
खैर, कहानी का अंत दादी-मां हमेशा यही कहकर करतीं थीं कि आधा राजपाट लेकर भी मुर्गा घर-जवांई बनने को राज़ी नहीं हुआ। अक्षता को पूरा विश्वास था कि मूल कहानी के अंत से इस क़िस्से का कोई सरोकार न था। दादी-मां तो बस अपनी बहु से नाराज़ थीं, जिसकी बातों में आकर उनका बेटा अपना पुश्तैनी मकान छोड़ कर बहु के पीहर में आ बसा था और दादी मां को मियानी में रहना पड़ रहा था; जहां से उन्हें सिर्फ़ यह सुनाई देता था कि बहु-बेटा सुबह कब घर से निकले और रात गए कब घर लौटे। अक्षता को लेकर दादी-मां सप्ताहंत पर हुमायूं पार्क तक हो आती थीं। मकबरे की घास पर बैठी वे दोनों तब तक अंताक्षरी खेलतीं जब तक कि नौकरानी चन्द्रा उनके लिए तुलसी, सौंफ़, अदरक और इलाइची की चाय लेकर न आ जाती, जिसके साथ होतीं पकौड़ियां अथवा भुनी हुई मुंगफली के दाने, जिन्हें चबाते हुए दादी-मां की कहानी फिर जारी हो जाती।
‘दरबार में पहुंचकर मुर्गे ने सीना ठोक कर राजा से राजकुमारी का हाथ मांगा। मुर्गे के कान में बैठी आशंकित भीड़ सांस रोके बैठी थी। क्रोधित राजा ने अपने सेनापति को आदेश दिया कि मुर्गे को आग में भून कर पेश किया जाए। मुर्गे को वह तन्दूर में झोंकने ही जा रहा था कि उसके कान से नदी निकली और तन्दूर तो क्या, उसने राजा के महल को ही पानी में डुबो दिया। मुर्गे को हाथी के पांव तले कुचलने का कुचक्र भी सफल नहीं हुआ; मुर्गे के कान से निकल कर चींटियों ने राजा के हाथियों पर धावा बोल दिया। राजा ने क्या-क्या न यत्न किये पर हट्टा-कट्टा मुर्गा अपनी बारात सहित डिगाए न डिगा। राज्य में त्राहि-त्राहि मच गई। राजा को अपनी इकलौती पुत्री का विवाह मुर्गे से करना ही पड़ा।’ दादी-मां की लोग-कथाओं और गीतों के बीच पली-बढ़ी अक्षता कब कौलेज पहुंच गई, उसे पता ही नहीं चला।
इसी दौरान, लंदन और दिल्ली विश्वविद्यालयों की एक ‘स्टूडैंट्स एक्सचेंज स्कीम’ के अंतर्गत विंस्टन बेकर दिल्ली में अक्षता और उसके मम्मी-पापा का अतिथि बन कर आया था। दिल्ली-दर्शन के दौरान अक्षता को विश्वास हो गया कि विंस्टन और वह एक दूजे के लिए ही बने थे। नादान और स्नेह की भूखी अक्षता को यदि जीवन में पहली बार किसी ने आदर-सम्मान दिया था तो वह विंस्टन ही था। कड़े अभ्यास के बावजूद विंस्टन अक्षता को ‘आकछाता’ कहकर ही बुलाता था।
‘यू कैन आल्सो कौल हर ‘अंशु,’ मम्मी ने विंस्टन की दुविधा दूर कर दी और ख़ुद भी वह विंस्टन को ‘विंस’ कहकर पुकारने लगीं।
अक्षता के पिता विंस्टन से मिलते ही उससे प्रभावित हो गए थे क्योंकि वह भी किंग्स कालेज का छात्र था जहां से बरसों पहले उन्होंने स्वयं भूविज्ञान में डिग्री ली थी। दादी-मां ने एक दो बार अक्षता को देर से घर लौटने के लिए टोका तो मम्मी-पापा ने उन्हें ही चुप करा दिया कि घूमने-फिराने में रात-बेरात तो होगी ही; उन्हें अपने ऊपर बड़ा गर्व था कि वे इतने प्रगतिशील विचारों वाले थे। वे अपनी इकलौती और मेधावी बेटी के ‘फ़र्स्ट लव’ से भी वे बड़े संतुष्ट थे। पड़ोस में वे सिर उठा कर निकलने लगे थे कि एक गोरा उनके घर में मेहमान था, भविष्य में वे जिसे अपना दामाद बनाने की भी सोच रहे थे।
‘आइ थिंक विंस्टन हैज़ सम ब्ल्यू-ब्लड इन हिम। उसकी स्किन तो देखो कैसी सौफ़्ट और क्लियर है। इंडियन कपड़े पहनकर कितना हैंड्सम लगता है!’ मम्मी की आंखों में इतनी चमक पहली बार देखी थी अक्षता ने। विदेश में बसने की अपनी अधूरी इच्छा शायद वह अपनी बेटी के माध्यम से पूरी करना चाहती थीं। पापा से विवाह ही उन्होंने इसलिए रचाया था कि वह इंगलैंड में पढ़े-लिखे थे।
अक्षता, जो अब तक केवल सिनेमा और रैस्टरौन्स तक सीमित थी, विंस्टन के साथ क्लबों चक्कर भी लगाने लगी, जिनकी फेहरिस्त विंस्टन अपने साथ इंगलैंड से लाया था। कुछ ही हफ़्तों के बाद वह अपनी चहेती सहेलियों को भी टरकाने लगी थी ताकि अधिक से अधिक समय वह स्वयं अकेले विंस्टन के साथ गुज़ार सके। सपनों में विचरने वाली अक्षता को विंस्टन के प्रस्थान से केवल दो दिन पूर्व होश आया कि न तो वह विंस्टन को इंग्लैंड लौटने से रोक सकती थी और न ही स्वयं उसके साथ जा सकती थी।
विंस्टन के वापिस जाते ही अक्षता पंखहीन पक्षी की तरह फड़फड़ाने लगी; जल्दी ही उसने भी इंगलैंड में पढ़ने की ठान ली; सौभाग्यवश उसके इस निर्णय से मम्मी-पापा भी प्रसन्न थे। उनके पैसे और दबदबे का उपयोग करते हुए उसने विंस्टन के कालेज में ही दाखिला ले लिया था; यह ख़बर सुनकर विंस्टन हैरान और परेशान तो अवश्य हुआ किंतु एक दोस्त के नाते वह उसकी मदद करने से पीछे नहीं हटा था।
किंग्स कालेज के होस्टल में अक्षता को जगह नहीं मिली तो विंस्टन के अनुरोध पर उसकी मौसेरी बहन, ऐनी ने उसे अपने फ़्लैट में ही एक कमरा दिया जिसका किराया डेढ़ सौ पाउंड्स प्रति मास था। विंस्टन और उसके मित्र, जब देखो तब ऐनी के फ़्लैट में ही धरे रहते थे, जो विल्स्डन-ग्रीन के एक सघन इलाके में था। ऐनी और अक्षता की दोस्ती पहले दिन से ही पक्की हो गई थी; अक्षता उसे छोटे मोटे उपहार देकर खुश जो रखती थी। विंस्टन और ऐनी को भारतीय खाना बहुत पसन्द था। सुबह शाम कार्नफ्लैक्स, अंडे, हैम और डबलरोटी खा-खाकर अक्षता दो हफ़्तों में ही इतना उकता चुकी थी कि उसने इंडियन-बुकशैल्फ़ से ‘क्विक इंडिअन फ़ूड इन मिनट्स’ नामक एक किताब ख़रीदकर भोजन पकाना शुरु कर दिया।
अक्षता को विंस्टन से घनिष्ट होते हुए देख ऐनी ने उसे सावधान किया कि विंस्टन शादीशुदा था। इस समाचार से अक्षता को बड़ा सदमा पहुंचा किंतु अपने को सयंत करते हुए वह झट बोल उठी थी कि उसे यह बात मालूम थी। ऐनी ख़ामोश हो गई, जब मियां-बीबी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी? बजाय विंस्टन से दूरी रखती, अक्षता अब उसके साथ खुल्लम-खुल्ला घूमने लगी। मम्मी-पापा की उसे कोई परवाह न थी; उन्हें व्यथित देखकर तो उसे शांति ही मिलती थी।
यात्रा और विदेश के खट्टे मीठे अनुभव अक्षता की कहानी में शामिल हो चुके थे, बिल्कुल दादी-मां के मुर्गे की कहानी की तरह। ऐनी, विंस्टन और उनकी मित्रमंडली की पचासियों आवाज़ें उसके कानों में गूंजती रहती थीं, जो टिनिटस पर हावी हो चुकी थीं। नकल उतारने की इस प्रतिभा से अक्षता के सारे मित्र सम्मोहित थे। इम्तहान सिर पर थे और अक्षता पढ़ाई की जगह मौज मस्ती में ही लगी थी। अपनी ही कल्पनाओं में तल्लीन उसके दिमाग़ में एक बार भी यह नहीं आया कि विंस्टन तलाक लिए बिना विवाह नहीं कर सकता था। अब तक जीवन में अक्षता को वह सब हासिल हुआ था जिसकी उसने ज़िद की थी तो अब क्या मुश्किल हो सकती थी?
उधर अक्षता को लेकर विंस्टन के सीधे-सादे दिमाग़ में कोई उलझन न थी, वह उससे वैसे ही पेश आता था जैसे कि अपने अन्य मित्रों से; यही वजह थी कि अक्षता और भी अधिक व्यथित थी। भारत मेँ अक्षता ने उसे कितना घुमाया फिराया था और उसके मम्मी-पापा ने उसकी ख़ातिर में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। विंस्टन उसे एक बार भी कहीँ घुमाने नहीं ले गया था। दो एक बार जब सारे मित्र किसी भोजनालय में साथ जाते भी तो सब अपने-अपने हिस्से के पैसे निकाल कर मेज़ पर रख देते थे, जिसे वे ‘गो डच’ कहते थे। पश्चिमी सभ्यता को अपनाने को राज़ी अक्षता को कई बातें अजीब लगतीं थीं। ऐनी की एक प्रिय सहेली थी मारिया, जिसके दो बच्चे थे किंतु अभी तक वह अपने प्रेमी से शादी नहीं कर पा रही थी। ऐसे ही न जाने कितने अविवाहित जोड़े अपने बच्चों के साथ होस्टल में मज़े से रह रहे थे।
पश्चिमी संगीत भी अक्षता के पल्ले नहीं पड़ता था। विंस्टन और ऐनी के साथ वह पौप म्युज़िक सुनने जाती तो उनके साथ अपने दोनों हाथ ऊंचे करते हुए वह भी झूमती ताकि वे समझें कि उसे आनन्द आ रहा था।
‘कितना भी पढ़ लिख जाओ लाड़ो रानी, गाना बजाना तो सीखना ही होगा, नहीं तो कौन करेगा तुमसे ब्याह?’ दादी-मां के अनुग्रह पर उसने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा भी ली थी किंतु उसकी मीठी आवाज़ का यहां कोई ग्राहक न था। कुछ मशहूर गायक तो ऐसी भौंडी आवाज़ में गाते कि उसे लगता कि कहे कि ‘भैया ज़रा, गला ही खंखार लो’। औरतों की आवाज़ में गाने वाले गायक और भी मशहूर थे। दादी-मां सुनती तो कह उठतीं, ‘मरे हीजड़े सी आवाज़, मर्द हो तो मर्द की आवाज़ में गाओ।’
यह जानते हुए कि विंस्टन की खूसट मां नैंसी इस बेमेल विवाह के लिए कभी भी राज़ी नहीं होगी, अक्षता भी मन ही मन योजनाएं बनाती रहती थी। ऐनी के विचार में भी विंस्टन और कैथी का विवाह कोई मायने नहीं रखता था विशेषतः जबकि वे इकट्ठे नहीं रहते थे। अक्खड और घमंडी नैंसी के किस्से वह ऐनी से सुनती आई थी। ऐनी का नैंसी मौसी से ज़रूर कोई जन्म का बैर था। विंस्टन के विवाह पर भी ऐनी ने मौसी का डटकर विरोध किया था किंतु दब्बू और लाड़ला बेटा मां के कहे में आ गया था; करोड़ों की हवेली का भी सवाल था जो दहेज़ में मिलने वाली थी।
हर रात अक्षता मुर्गे की कहानी खुद-ब-खुद कहती और सुनती और सोचती कि वह इतनी सनकी कैसे हो गई? विंस्टन और ऐनी के मित्र अब उसके भी क़रीब आ चुके थे और अक्षता को लगता था कि जैसे उसकी स्थिति अब काफ़ी मज़बूत थी; उसे विश्वास था कि विंस्टन से उसके विवाह की योजना में वे सब उसकी मदद करेंगे। कैथी, नैंसी और उसके पति मिस्टर बेकर, सबको हार माननी पड़ेगी। वह बाज़ी जीतकर रहेगी।
ऐनी के काम करने के सुव्यवस्थित तरीके से भी अक्षता बहुत प्रभावित थी। उसी ही ने तो अक्षता को बताया था कि जज़्बात को अलग रख कर विषयनिष्ठ होकर काम को अंजाम देना गोरी जात की विशेषता है। नैंसी और कैथी के प्रति अक्षता का भावुक हो उठना उसकी कमज़ोरी थी; जिस पर उसे काबू पाना था।
नैंसी घाघ थी पर अक्षता भी कोई छोटा मोटा भारतीय राजा नहीं थी जिसे वह छोटी सी धमकी या घूस से पटा लेतीं; विशेषतः जब उनका एक महत्वपूर्ण मोहरा यानि कि ऐनी, अक्षता की धरोहर था। यूं तो विंस्टन अब अक्षता पर जी जान से फिदा था किंतु अपनी मां के सामने उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी। कैथी से उसके सम्बंध बड़े औपचारिक थे; जब भी मिलना होता, विंस्टन कैथी के गाल पर एक छोटा सा चुम्बन दे देता जैसा कि वह अपनी अन्य महिला-मित्रों को देता था। एक बड़ा मसला था उस हवेली का; कहीं नैंसी विंस्टन को जायदाद से बेदख़ल न कर दे।
ऐनी की छत्रछाया में विंस्टन और अक्षता के सम्बंध परवान चढ़े तो चढ़ते ही चले गए। विंस्टन के जन्मदिन की पार्टी में, ऐनी के साथ-साथ अक्षता ने भी खूब वौडका का पान किया। उसे समझ नहीं आया कि जब जन्मदिन विंस्टन का था और उसने ही सबको आने का न्योता भी दिया था तो क्यों मेहमान अपने-अपने पैसों से पी रहे थे! खैर, सुबह के चार बजे रहे थे जब वे क्लब से घर लौटे। ऐनी और मारिया तो आते ही सो गईं। चाहती तो अक्षता विंस्टन का बिस्तर सोफ़े पर लगा सकती थी किंतु उस रात न वह ख़ुद को रोक पाई और न ही उसने विंस्टन को ही निरुत्साहित किया। उसके चारों ओर युवक युवतियां मज़े कर रहे थे तो वह क्यों रोक लगाए अपने जज़्बात पर? वह अब पूरी तरह से व्यस्क हो गई थी और उसे किसी का डर न था।
बी।एस।सी का यह अंतिम वर्ष था। अच्छे नम्बरों से पास होने की जगह अक्षता और ऐनी का लक्ष्य नैंसी को पछाड़ना था। कभी-कभी अक्षता को लगता कि विंस्टन दादी-मां की कहानी के नायक उस मुर्गे जैसा था जो सबकी बस हां में हां मिलाता रहता था और ऐनी जब तब किसी तरह उसे विपरीत परिस्थितियों से उबार लेती।
जब से विंस्टन भारत से लौटा था, अक्षता का नाम उसकी ज़ुबान पर चढ़ा हुआ था; फ़ेसबुक पर उसकी हर फ़ोटो में मुस्कुराती हुई अक्षता का चेहरा नैंसी को ख़तरे का आभास देता रहा था। विंस्टन का मां के पास आना जाना भी कम हो गया था। नैंसी के लिए ऐनी के मन की थाह लेना भी आवश्यक था क्यूंकि विंस्टन पर ऐनी का काफ़ी दबदबा था। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए नैंसी ने उन तीनों को क्रिसमस मनाने के लिए डैवन आने की दावत दी थी; वे अपनी आंखों से देखना चाहती थीं कि पानी कितना गहरा था।
डैवन बड़ा खुला इलाका था, जहां बादल, बारिश और हवा का साम्राज्य था; इतनी ठंड अक्षता को अपने पूरे जीवन में कभी महसूस नहीं हुई थी। तिस पर यंत्रचलित ठंडी मुस्कुराहटों से सिवा मेज़बानों और मेहमानों के पास अदले-बदले के लिए कुछ नहीं था सिवा शराब के। अक्षता को लगा कि जैसे हवेली एक शमशान थी, जिसकी वासी थीं चलती फिरती लाशें, ठंडी और स्पन्दनहीन। वहां उसे अपने मम्मी-पापा की बहुत याद आई, खासतौर पर अपनी दादी-मां की गर्म-नर्म गोद की।
हवेली के फ़र्श बड़े और भारी चौकोर पत्थरों से बने थे; अतिथि जिनकी तारीफ़े करते नहीं अघा रहे थे। यदि वे अक्षता की कोठी में बिछे सफ़ेद संगमरमर के फ़र्श देख लें तो कदाचित बेहोश ही हो जाएं। ऊंची छ्तों वाले दो बड़े हालनुमा कमरों में टंगे वृहत रूपचित्र अक्षता पर मानों नज़र गड़ाए थे; किसी चीज़ को छूकर देखना तो दूर, उसे ग़ौर से देखना भी गुनाह लग रहा था। रात को डर के मारे वह शौचालय तक नहीं जा पाई। फ़र्श पर कदम रखते ही सन्नाटे में चूं-चरर-चूं-चरर की आवाज़ें लगता कि कहीं सारे मेहमानों को ही न जगा दें। वह सांस रोके लेटी रही कि शौचालय के बजाय कहीं वह ग़लती से किसी के शयनकक्ष का दरवाज़ा न खोल दे।
सुबह-सुबह नींद लगी ही थी कि चिड़ियों की चीं-चीं ने अक्षता की नींद हराम कर दी। उसके कानों की बारात रात भर शोर मचाती रही थी; मन हुआ कि बस उसी समय लंदन लौट जाए और नींद की गोलियां लेकर दो दिन बस सोती ही रहे।
नैंसी की कड़ी निगरानी की वजह से विंस्टन भी अक्षता से मेहमानों की तरह पेश आ रहा था। ‘हेलो हाऊ आर यू’ के अलावा किसी से कोई बात नहीं हो पा रही थी; इतनी औपचारिकता! नैंसी अपने पति को ‘मिस्टर बेकर’ कहकर सम्बोधित कर रही थी और विंस्टन अपनी मां को ‘मैडम’! ऐनी की दाहिनी आंख में गुहाजिनी निकल आई थी, वह काला चश्मा लगाए अपने कमरे में बंद हो गई थी। अक्षता ने दादी-मां का मंत्र दोहरा कर ऐनी के बायें पांव के अंगूठे पर काला धागा लपेट दिया। शायद ऐनी को उसी स्नेह और अपनेपन की आवश्यक्ता थी जो अक्षता को दादी-मां से मिला था। वही बातें जिसका अक्षता मज़ाक उड़ाती आई थी, अनजाने में उसने अपना ली थीं। विंस्टन हैरान था और उसके मां-बाप स्तम्भित।
‘यू वांट मी टू बिलीव इन दिस मम्बो जम्बो!’ विंस्टन के चाचा कहे बिना नहीं रह सके थे।
लाख छिपाने के बावजूद, नैंसी ने अक्षता और विंस्टन के अप्रत्यक्ष सम्बंधों को भांप लिया था और वह अक्षता को अपमान की सीमा तक नज़रअन्दाज़ कर रहीं थीं। कैथी से बात करना दीवार से सिर मारना था क्यूंकि वह किसी बात का जवाब तक नहीं दे पा रही थी। घर में उसकी बीमारी के विषय में बात करना निषिद्ध था। ऐनी ने बताया थी कि कैथी को दौरे पड़ते थे और उन दौरों पर अंकुश रखने के लिये जो दवाइयां उसे दी जाती थीं, उनसे वह कभी फूल के कुप्पा हो जाती तो कभी सिकुड़ कर तोरी। ऐनी को लगता था कि विंस्टन की उपस्थिति कैथी को परेशान करती थी किंतु नैंसी का मानना था कि इसका कारण था विंस्टन की उपेक्षा। कैथी इतनी सीधी-सादी और छुईमुई सी युवती थी, जिससे घृणा अथवा ईर्ष्या करना तो क्या उसके लिए मन में बुराई लाना भी अक्षता को पाप लग रहा था।
क्रिस्मस के पारम्परिक भोजन में हिरण का गोश्त, सौसेजस, ब्रस्सल्स स्प्राऊटस, सिके हुए आलू और उबली हुई तरकारियां परोसी गईं थीं; सब कुछ नपा तुला। जैसे ही अक्षता ने गोश्त खाने से इंकार किया, विंस्टन और मिस्टर बेकर ने नैंसी की डपटती आंखों के सामने ही अक्षता की प्लेट में रखे गोश्त और सासेजस झपट लिए। बाकी के मेहमानों की आंखों में भी नदीदापन झलक रहा था। नैपकिंस से होंठों को छू-छूकर मेहमान बड़े ही एहतियात से भोजन कर रहे थे; अक्षता के लिए यह सब बड़ा औपचारिक और अटपटा था।
भोजन से निपटने के बाद मिस्टर बेकर ने लाल रंग का ढीला ढाला चोगा, लम्बी लाल टोपी और सफैद दाढी मूंछे लगा लीं और उपहार बांटने लगे, जो जल्दी ही निपट गए। विंस्टन और ऐनी के लिये अक्षता ने चार-चार उपहार लिए थे जबकि उन दोनों ने मिलकर उसके लिए एक ही उपहार ख़रीदा था, मफ़लर और दस्ताने। नैन्सी और मिस्टर बेकर के लिये वह भारत से महंगे उपहार लाई थी; जिन्हें देखकर सबकी आंखें फटी फटी की रह गईं थीं। वह जानती थी कि भारत में होती तो उसके मम्मी-पापा उसके ससुराल वालों को उपहारों से लाद देते; ऐनी ने उसे समझाया भी था कि दिल्ली अभी बहुत दूर थी किंतु उसने उसकी एक न सुनी। मंज़िल पर पहुंचने के लिए उसे हर मौके का फ़ायदा उठाना था।
भोजन के बाद जब सब पोर्ट पीने लगे तो विंस्टन ने मुर्गे की कहानी से अतिथियों का मनोरंजन किया। नैंसी के विशलेषण से अक्षता भी प्रभावित थी; उन्होंने कहा कि जहां एक ओर प्रकृति, मानव सम्भन्धों और पशु पक्षियों के विषय में विस्तृत जानकारी बच्चों को खेल-खेल में दे दी गई, वहीं उन्हें कर्मठता, सह्रदयता और साहस जैसे गुणों का महत्व भी समझा दिया गया। उन्होंने यह भी कहा कि अक्षता को इस कहानी को अवश्य किसी पत्रिका में छपवाना चाहिए। न जाने ये उपहारों का कमाल था या सचमुच ही उन्हें कहानी अच्छी लगी थी कि वह अक्षता से खुल कर बातचीत करने लगीं थीं और अन्य लोग भी कुछ गर्माये से लग रहे थे, उन पर शायद शराब का असर हो।
ऐनी और अक्षता रात के करीब बारह बजे वापिस लंदन पहुंचीं। रास्ते भर अक्षता पेट में दर्द की शिकायत करती रही थी, घर पहुंचते ही उसकी तबियत अधिक ख़राब लगने लगी तो ऐनी को एम्बुलैंस बुलानी पड़ी, जो उसे सैंट्रल-मिडलसैक्स अस्पताल ले गई।
अक्षता गर्भ से थी।
भारत में होती तो उसे भला बुरा सुनने को मिलता और मम्मी-पापा उसका गर्भपात करवाने की सोंचते। वह खुश थी कि वह लंदन में थी। यहां उसे कोई भय नहीं था कि मम्मी पापा क्या कहेंगे, न ही उसे कालेज के मित्रों की परवाह ही थी पर फिर भी वह बस खुद में सिमट सी गई।
अक्षता को क्षुब्ध देखकर ऐनी उसे और परेशान नहीं करना चाहती थी किंतु मन ही मन डर रही थी कि कहीं अक्षता गर्भपात की न सोच रही हो। यह ख़बर सुनकर विंस्टन सुबह-सुबह लंदन पहुंच गया। ऐनी ने अक्षता की इस हालत के लिए उसे ही उत्तरदायी ठहराया।
‘यू शुड हैव बीन मोर केयरफ़ुल, शी लिव्स इन ए कुकूस वर्ड। वाट विल शी टेल हर पैरेंट्स? इंडियंस आर वेरी और्थोडौक्स, यू नो?’ ऐनी ने विंस्टन को अपराध-भावना से ग्रसित करके ही छोड़ा। पिता बनने की सूचना ने उसे वैसे ही झकझोर के रख दिया था। अक्षता के सिरहाने बैठा भयभीत विंस्टन यही सोचता रहता कि उसकी गैरहाज़िरी में अक्षता कुछ उल्टा-पल्टा न कर बैठे।
जिसे पाने के लिए अक्षता सब कुछ करने को तैयार थी, वह उसकी झोली में पके आम सा आ गिरा था।
‘दिस प्रैगनैंसी हैज़ बीन स्टेज्ड टु गैट यू, विंस।’ नैंसी ने भन्नाते हुए विंस्टन से कहा, जो उनकी कोई बात सुनने की स्थिति में नहीं था। नैंसी ने जब उसे ज़ायदाद से बेदखल करने की धमकी दी तो गुस्से में घर छोड़ कर वह स्थाई रूप से ऐनी के घर आ टिका। ऐनी के कहने पर कि यदि वह कैथी से तलाक के लिये आवेदन दे देगा तो अक्षता सुरक्षित महसूस करेगी, विंस्टन ने अपने एक वकील दोस्त से सलाह ली और जल्दी ही तलाक के लिए अर्ज़ी दे दी गई। अब उसे न मां की कोई परवाह थी और न ही ज़ायदाद की। वह बहुत ख़ुश था, वह पिता जो बनने जा रहा था।
अक्षता की कल्पना के विपरीत, नैंसी और उसके पति के जातिसूचक ‘स्टिफ़ अप्पर लिप्स’ कुछ ढीले हुए और जल्दी ही वे उससे बड़े सौहार्द से पेश आने लगे। बुनियादी तौर पर वे जानते ही थे कि कैथी से तो वंश चलने से रहा।
अक्षता के कानों में बैठी बारात अभी बन्ने-बन्नियां गा ही रही थी कि यकायक जच्चा-बच्चा के गीत ढूंढे जाने लगे। दादी-मां की कहानी बच्चों तक तो कभी पहुंचती ही नहीं थी। लगा कि जैसे अक्षता का खज़ाना खाली हो गया हो। उसे एक भी जच्चा याद न थी, सिवा दिल्ली के हीजड़ों द्वारा गाया जाने वाला वह गीत जो वे भद्दी आवाज़ और तालियों के साथ गाते थे, ‘काले काले बाल लला के, घूंघर वाले बाल लला के।’ तभी अचानक उसे याद आया मम्मी का प्रिय भजन, ‘ठुमक चलत राम चन्द्र बाजत पैंजनियां,’ वह कैसे भूल गई अपनी मां की लोरियां जो वह उसे बचपन में सुनाया करती थीं? क्यों वह इतना दूर हो गई अपनी मां से? क्या दादी की वजह से, जिन्हें मम्मी बिल्कुल पसन्द नहीं थीं? जब समझने लायक हुई तो अक्षता ने भी मन ही मन दादी पर हुई ज़्यादती का ज़िम्मेदार उन्हें ही ठहरा दिया। खैर, मम्मी-पापा को भी समाचार दे दिया गया था। खुश होने के बजाय वे और कर भी क्या सकते थे? दादी-मां का क्या हश्र हुआ होगा? अक्षता ने तय किया कि वह दादी-मां को दिल्ली जाकर सहसा आश्चर्य में डाल देगी; विंस्टन और नील दोनों से मिलकर वह ख़ुश हो जाएंगी।
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‘ओ माइ लौर्ड, लुक ऐट हिम, मिस्टर बेकर।’ पालने में झूल रहे नील ने नैंसी पर न जाने क्या जादू किया कि वे ऐसी निहाल हुई कि उन्हें वहां से हटाना किसी के वश में न था। अक्षता से अनुमति लेकर वह अगले ही दिन कैथी को लेकर आईं, जिसके चेहरे पर फैली विशुद्ध और प्यारी सी मुस्कुराहट अक्षता को अपराध-भावना से ज्यूं मुक्त कर गई।
नील के घुंघराले बालों में अक्षता की उंगलियां दादी-मां जैसा जादु जगा रही थीं; वह अपनी सलोनी मां को टुकुर टुकुर निहारते हुए दादी-मां की कहानी सुन रहा था, ‘एक था मुर्गा…’
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