
गूगल
– दिव्या माथुर
‘ओह शिट्ट’ कहकर एक लड़की डर के मारे मुझसे दूर जा खड़ी हुई जैसे कि उसने कोई शेर देख लिया हो। मैं मुश्किल से अपनी हंसी रोक पाई। कोई उससे पूछे कि क्या वह अपने को बेकर-स्ट्रीट के बीचों बीच अधिक सुरक्षित महसूस कर रही थी।
‘जानम,’ पुकारते हुए उसके साथ वाले लड़के ने उसे वापिस फ़ुटपाथ पर खींच लिया और चूमने-चाटने लगा। ‘जानम’ के नाम पर मुझे बहुत ग़ुस्सा आया; ये तो मेरा नाम है। ख़ैर, उस समय तो भागकर मैं शर्लक होम्ज़ के घर के बाहर लगे जंगले की आड़ में जा छिपी। पियक्कड़ों का क्या भरोसा! रात बेरात हत्याएं करते घूमते हैं। पार्कवियु इमारत के बाहर खड़ा गूगल सड़क पर हो रहे इस तमाशे का मज़ा ले रहा था। मैं दबे पाँव सरकती हुई उसके पास पहुंच गई।
‘ये ब्लडी इंडियंस तो हमारी जान के दुश्मन हैं। गोरों के मन में हमारे लिए कम से कम थोड़ी दया ममता तो है।’ मैंने ग़ुस्से में कहा।
‘जानम, तुम भी तो फ़ुटपाथ के बीचों बीच चल रही थीं।’ गूगल ने मुझे एक प्यार-भरी झिड़की दी।
‘फ़ुटपाथ क्या इनके बाप का है, गूगल?’
‘तो जानम, क्या ये तुम्हारे बाप का है?’
‘सरकार का है।’
‘सरकार भी तो इन्हीं की है, जानम्।’
‘लन्दन में आबादी इतनी बढ़ गई है कि लोग अब पिंजरों जैसे घरों में रहने को बाध्य हैं। भागती हुई रेलगाड़ियों के नीचे पटरियों के बीच भी हमें चैन नहीं है।’
’तभी तो कहता हूँ, जानम, कि सावधानी बरतो।’
गूगल एक दिन मुझे बेकर-स्ट्रीट के मुहाने पर मटरगश्ती करते हुए मिला था जैसे छोकरे छोकरियाँ बिना किसी वजह के बस अड्डों और खम्भों पर ठुड्डे मारते फिरते हैं। मुझे देखकर उसने सीटी बजाई तो मैंने उसे ग़ौर से देखा। वह मुझे चुस्त दुरुस्त और हैंडसम लगा। साफ़ सुथरे और सम्पन्न इलाकों के निवासियों की तरह उसके चेहरे पर एक अजब सा नूर था। बस मेरे मन को भा गया। मैं तो ईस्ट हैम के भीड़ भड़क्के वाले इलाक़े की आदि थी जहाँ के निवासियों के चेहरों पर ज़रूरतों की गहरी झुर्रियाँ होती हैं; वे पैदा होते ही प्रौढ़ और प्रौढ़ होते ही बूढ़े लगने लगते हैं।
ख़ैर, थोड़ी देर इधर उधर टहलाने के बाद गूगल मुझे मार्चैल्लो नामक एक इटैलियन रैस्टोरैंट, मार्चैल्लो, में ले गया, जिसके तहखाने में बने गोदाम में उसने अपना डेरा जमा रखा था। क्या ठाठ बाट थे उसके। उसने बताया कि पिछले पूरे साल वह काफ़ी घूमता फिरता रहा था और अब यहाँ टिक कर वह घर बसाना चाहता है। मैंने सोचा कि शायद लाइन मार रहा था पर वह गम्भीर था। अन्धे को भला क्या चाहिए? उसके पास रहने के लिए आरामदायक और सुरक्षित जगह थी, खाने पीने की भी कोई कमी न थी। मैंने झट हाँ कर दी।
जब हम मार्चैल्लो पहुंचे तो वहाँ का एक वेटर, कार्लो, काम ख़त्म करके बाहर निकल रहा था। मुस्कुराते हुए उसने गूगल की ओर देखा और अपनी बाईं आँख दबाते हुए कहा,
‘सो यू हैव ए गर्ल फ्रैंड नाउ।’
मैं शर्मा के गूगल के पीछे छिप गयी। गूगल ने बताया कि कार्लो उसका अच्छा दोस्त है। चट मंगनी पट ब्याह वाली बात भी नहीं हुई; हम तो बस साथ रहना चाहते थे पर कार्लो ने मेरे और गूगल के लिए सफ़ेद, आसमानी और गुलाबी रंग के शादी के जोड़े बनाए। वरोना में उसके माँ-बाप की खिलौनों की दुकान थी और उसकी माँ खिलौनों की पोशाकें सिया करती थीं। जब वे वरोना में थे तो कार्लो का छोटा भाई दीनो पिता की खिलौने बनाने में और कार्लो माँ की पोशाकें बनाने में सहायता किया करते थे।
अगली शाम कार्लो ने मार्चैल्लो के डाइनिंग हाल में दस नंबर की मेज़ के नीचे हमारी छोटी सी मेज़ और कुर्सियाँ लगाई जो दीनों ने माचिस ख़ाली डिब्बे और डिब्बियों से बनाई थीं। खाने का प्रबंध किया। सफ़ेद गाउन और गुलाबी रंग की जैकेट पहने मैं अपने को ऐश्वर्या राय से कम नहीं समझ रही थी; गूगल तो ख़ैर था ही मेरा शारुख खान! हम दोनों ही सातवें आसमान पर थे।
मार्चैल्लो के सभी वेटर्स जानते थे कि गोदाम में हमने डेरा डाल रखा था पर उन्होंने अपने मालिक से कभी इस बात का ज़िक्र नहीं किया। कार्लो बहुत ही दयालु था। उसका बस चलता तो वह चौबीसों घंटे कम्प्यूटर के सामने बैठा रहता; और मेज़ पर बैठे गूगल महाराज भी तब टस से मस न होते। कार्लो को कौफ़ी पीने का चस्का था; वह अपनी प्लेट में कुछ कौफ़ी गूगल के लिए डाल देता। रात के बारह या एक बजे के क़रीब कार्लो घर जाने के लिए निकलता तो हमारे लिए ताज़ा खाना फ़र्श पर चुपचाप छोड़ जाता। वह जानता था कि हम दोनों को पार्माहैम-चीज़ पास्टा और टमाटर मौज़रैल्ला सलाद बहुत पसन्द था। भोजन के बाद हम दोनों बेकर-स्ट्रीट पर घूमने निकल जाते और मैडम टुसाड तक घूम आते। जब कभी अन्दर जाने का मौका मिलता तो हम मोम के बने पुतलों की नकल उतारकर आनन्द लेते।
’देखना जानम, एक दिन हमारे पुतले भी यहाँ लगे होंगे।’ गूगल ने कहा।
‘क्यों नहीं, गूगल, मीडिया-सर्कस के इस ज़माने में कुछ भी सम्भव है।’ हम दोनों ही हंसते हंसते लोट पोट होने लगे।
आधी रात के समय भी मार्लिबन रोड काफ़ी व्यस्त रहती थी पर बेकर स्ट्रीट ठीक ठाक थी; वहाँ ख़तरा कम था। गठरियों में लिपटे न जाने कितने लोग सड़कों पर सोते मिलते, जिनके सिरहाने या पैताने हमें बचे-खुचे खाने के टुकड़े भी मिल जाते थे। हम सोचते कि हाथ पाँव होते हुए भी आदमी को दूसरों के टुकड़ों पर जीने की क्या ज़रूरत थी; ठंड में ठिठुरते हुए तारकोल की ठंडी सड़क पर क्या उन्हें ठंड नहीं लगती होगी? पर शायद शराब के सहारे उनकी गर्मी सर्दी सब कट जाती होगी; खाने को कुछ मिले न मिले पर भीख माँगकर वे अपने लिए शराब का प्रबन्ध ज़रूर कर लेते थे।
शर्लक होम्ज़ म्यूज़ियम के तहखाने में उतरकर हम दोनों शर्लक और डा वाटसन की नकल उतारते हुए ख़ूब मज़ा करते। कभी कभी हम थोड़ी ही दूर पर ही स्थित लंडन-बीट्ल्स-स्टोर में घुसकर हल्ला मचाते; बीटल्स के गिटार के तारों पर कूदते तो वे बजने लगते। गूगल वहाँ घंटों गा-नाच सकता था।
लोगों द्वारा छोड़े गए बियर के कैन्स और बोतलें हमारे नशे के लिए काफ़ी थीं। हम लुढ़कते फुड़कते वापिस आते और प्लास्टिक के बड़े बड़े डिब्बों के पीछे छिपकर सो रहते। इस समय गूगल को कौफ़ी की तलब उठती। उसका बहुत मन था कि वह एक दिन कौस्टा कौफ़ी का आनन्द ले।
ऊंघते हुए सुबह हम तब तक आँखें नहीं खोलते थे जब तक कि मार्चैल्लो का मालिक उठा पटक नहीं शुरु कर देता। वैसे गोदाम में कोई भी ग्यारह बजे से पहले क़दम नहीं रखता था, सारे वेटर्स चाय कौफ़ी और सैंडविचेस बेचने में बेहद व्यस्त रहते। एक बजे के क़रीब तो ऐसी भाग दौड़ मचती कि फ़र्श पर हमें इधर से उधर ऊधम मचाते देखकर भी वे अनजान बने रहते। जो बोले वो कुंडा खोले सोचकर वे हमें नज़रन्दाज़ कर देते। जब थक जाते तो ताज़ा पनीर के टुकड़े कुतरते हुए हम आराम से बिस्तर पर पड़ जाते। दिन की रौशनी हम दोनों को काटने दौड़ती थी। एक अन्धेरे कोने में गूगल ने किचेन टौवेल्स और टौएलेट टिशूज़ आदि जमाके एक आरामदायक बिस्तर लगा दिया था, जिसपर पड़े हुए हम ख़ूब गप्पे मारते थे। उसके ज्ञान का भंडार भी अपार था; तभी तो मैंने उसे ‘गूगल’ का नाम दिया था। मैंने सुन रखा था कि गूगल मुश्किल से मुश्किल प्रश्न का जवाब झटपट दे देता था।
‘गूगल, भगवान ने हमें इतनी छोटी उम्र क्यों दी?’ हम दोनों एक दूसरे को इतना प्यार करते थे कि मरने की आशंका मुझे जब तब व्यथित करने लगती।
‘जानम, किसी कवि ने कहा है न कि फूल सा ख़ुश्बु फैलाता छोटा सा जीवन लम्बे बेकार जीवन से कहीं बेहतर है।’
‘फिर भी ये सब छोड़कर मरना…’ गोदाम में फैली सुख-सुविधा को देखते हुए मैंने आह भरी।
’जानम, चाहो तो हम अपने जीवन के क़रीब क़रीब दो साल बढ़ा सकते हैं।’
’वो कैसे?’ मैंने उत्साहित होते हुए पूछा।
’लैब के किसी शोध में भाग लेकर।
’हे भगवान, तुम तो जानते हो कि प्रयोगशालाओं में शोध के लिए क्या क्या अत्याचार नहीं किए जाते।’
‘पर वहाँ पेट भर खाना तो मिलेगा। न आदमी का डर, न कुत्ते-बिल्ली का, ना गिद्ध-चील और साँप का, बस थोड़ी सी तकलीफ़…’
‘इसे तुम थोड़ी सी तकलीफ़ कहते हो, गूगल? रात दिन का निरीक्षण, परीक्षण, औषधियाँ और इंजैक्शंस…’
‘अपन तो आज़ाद पंछी हैं, जिएंगे खुले में और मरेंगे खुले में; पाँच साल के लम्बे जीवन से अच्छा है हमारा तीन एक साल का नन्हा सा जीवन।’
‘मैं तो उस ललमुहें क्लैरेंस कुक लिट्टल को दोष देती हूँ जिसने 1909 में प्रचार किया लैब के लिए हमसे अच्छा प्राणी और कोई नहीं।’
‘जानम, वे भी क्या करें? जीव विज्ञान और मनोविज्ञान के लिए हम जैसे सस्ते मैम्मल्स बहुत उपयोगी हैं जिनका रख-रखाव, सम्भाल और पालन पोषण आसान है, जो जल्दी जल्दी ढेर से बच्चे पैदा कर सकते हैं, जिनकी नित नई पुश्तें शोध के लिए आदर्श हैं।’
‘फिर एनिमल वैल्फ़ेयर एक्ट पास करने का क्या औचित्य है, गूगल?’ गूगल एक अच्छा राजनीतिज्ञ है पर उसे इंसान ने क्या दिया कि वह उनकी तरफ़दारी कर रहा है?
‘बदकिस्मती से हमारे जीन्स का दृव्य आदमी के जींस से बहुत कुछ मिलता जुलता है…’
‘तो क्या, गूगल, उन्हें इजाज़त मिल गई कि हम पर जैसे चाहें अनाचार करें? मेरी मामी को वे पिंजरे में बन्द करके लन्दन यूनिवर्सिटी की एक प्रयोगशाला में ले गए थे जहाँ इंजैक्शंस दे देकर उसे काटा पीटा। असहाय मामा, जो वहाँ आ छिपे थे; दिन रात मामी को तड़पता देखते रहे। फिर एक दिन जब वह मामी मर गई तो उसे उठाकर उन्होंने बेदर्दी से डस्टबिन में डाल दिया।
‘मुझे तो इस बात पर हैरानी होती है कि एक अदने से आदमी की ख़्वाहिशें कितनी ऊँची हैं। वह बड़ी बड़ी आलीशान इमारतें खड़ी करता है, जबकि उसे सिर्फ़ दो गज़ ज़मीन चाहिए।’
‘तभी तो आदमी इतना तन्हा हो गया है, गूगल। हमें देखो, एक छोटे से कोने में हम कितने ख़ुश हैं!
‘कभी कभी मुझे लगता है कि हमसे तो बिल्लियाँ ही अच्छी हैं। हैरो में एक बिल्ली को डस्टबिन में क्या डाल दिया कि दुनिया भर में तूफ़ान मच गया।’
‘मेरी माँ और भाई तो पैदा ही हुए थे बिल्ली के भोज के लिए। भाई को बचाते मेरी माँ शिकार हुई और अगले ही दिन कलमुँही भाई को भी खा गई। हमारी तो एक बिल भर ख़्वाहिश भी उसे मंज़ूर नहीं; उसमें भी वह ज़हर की पुड़ियाँ रख देता है, गूगल।’
‘कुछ अच्छे इंसान भी तो हैं न जानम, जैसे कार्लो।’ उसी रात को ही अपनी अच्छाई प्रदर्शित करने के लिए ही शायद कार्लो हमें अपनी जेब में रखकर बेकर स्ट्रीट स्टेशन की चलती-फिरती सीढ़ियाँ दिखाने ले गया। बहुत मज़ा आया। उस समय वहाँ कोई नहीं था। स्टेशन की दीवारों पर सिगार मुँह में दबाए शर्लक होल्म्स की टाइल्स लगी हुई थीं, जहाँ कार्लो ने अपने मोबाइल कैमरे से हमारी फ़ोटो ली। अगले दिन उस फ़ोटो को प्रिंट करके उसने हमारे बिस्तर के पास रख दिया। हम फूले नहीं समा रहे थे।
एक शाम को कार्लो ने हमें हम मेज़ नम्बर दस के नीचे छिपा दिया, जिसपर बैठे कुछ गुंडे आपस में खुसरपुसर कर रहे थे कि हमारा ज़िक्र आया। हमारे कान खड़े हो गए।
‘धामी बता रहा था कि उसके हाथ पाँव बांधकर सैनिकों ने उसे ख़ूब पीटा और फिर उसके मुँह पर मूतने लगे। फिर भी उन्हें सुकून नहीं मिला तो…’
’तो क्या?’
‘जाने दे न यार।’
’अबे साले, बात पूरी कर।’ उनमें से एक ने दूसरे की पीठ पर एक धौल जमाते हुए कहा।
‘ओसारे में उन्हें एक चूहा दिखा, जिसे वे धामी के मुँह में घुसाने की कोशिश करने लगे। धामी ने अपना मुँह भींच लिया तो एक दूसरे ने उसकी नाक बन्द कर दी। सांस लेने के लिए जैसे ही धामी ने अपना मुंह खोला, चूहे को उसके मुंह में ठूंस दिया गया।’
गूगल ने मेरे कान बन्द कर दिए थे पर मुझे सब सुनाई दे रहा था। मैंने सोचा कि इस दुनिया को हो क्या गया है? मेरी तबीयत बहुत ख़राब हो गई।
उसी रात मैंने एक साथ आठ बच्चों को जन्म दिया; नन्हें मुन्ने गुलाबी बच्चों को देखकर हम दोनों फूले नहीं समाये। गूगल उनके पास से हिलने को भी तैय्यार न था। मैंने पहली बार उसे गुनगुनाते हुए सुना। काश कि प्यार का इज़हार भी वह मुझसे गीत गाकर करता पर शायद उसका स्नेह गुनगुनाहट के रूप में फूटा था।
कार्लो और गूगल कम्प्यूटर पर बैठे बच्चों के नाम ढूंढ रहे थे कि गूगल ने देखा कि हमारे नवजात शिशुओं को ‘लिट्टर’ के नाम से पुकारा जाता है।
‘भगवान बहुत दयालु है। वह हमें ढेर सारे बच्चे एक साथ इसीलिए देता है कि ख़तरों से जूझते हुए इनमें से एक दो तो बच जाएं।’
‘तुम और तुम्हारा भगवान।’ गूगल बोला।
‘यू आर माइ ‘कर्सर’, यू लिट्टल वन आर ‘सर्च’ एण्ड यू ‘क्लिक’, लुक ऐट दिस मूविंग थिंग, यू आर माइ ‘आइट्यून’; यू ‘नीरो’ ऐण्ड यू आर ‘याहु’; ऐण्ड यू माई डियर आर ‘और्कुट।’ कहते हुए कार्लो हमारे बच्चों के नाम इंटेरनैट से सम्बन्धित शब्दों पर रखने लगा।
‘लास्ट बट नौट दि लीस्ट, वी विल काल यू ‘स्काइप’…’ पहचान के लिए उसने फ़ोटो के साथ उनके नाम कम्प्यूटर पर लिख दिए। कार्लो और गूगल ऐसे ख़ुश हो रहे थे कि जैसे उन्होंने कोई तीर मार लिया हो।
‘इफ़ यू हैड फ़ाइव मोर चिल्ड्रन, आई वुड काल दैम ‘मेमोरी’, ‘टौग्गल’, ‘इंडैक्स’, ‘पिकासा’, ऐँण्ड ‘ब्लू-टुथ’। कार्लो बोला।
‘इसे इतना ही शौक चढ़ रहा है तो अपने बच्चे क्यों नहीं पैदा कर लेता?’ मैंने कहा।
‘अरे जानम, तुम तो जानती ही हो कि ये गोरे-गोरियाँ बच्चे पैदा करने में बहुत डरते हैं। कार्लो को ख़ुश करना है तो क्यों न हम तुम कुछ बच्चें और पैदा कर लें?’ अपनी बाईं आँख दबाते हुए गूगल खिलन्दड़े अन्दाज़ में बोला।
’कार्लो और दीनों की तो शर्म करो।’ मैंने सकुचाते हुए कहा।
कार्लो आज बहुत अच्छे मूड में था क्योंकि दीनो को, जो लन्दन हौस्पिटल में शोध कर रहा था, एक और साल का अनुदान मिल गया था। तीन साल की पढ़ाई के बाद होम औफ़िस वाले उसे लन्दन में रहने की छूट दे देंगे। दीनो की सहायता से उसने हमारे लिए सोफ़ासेट और मेज़ बनाए थे, जिसके ऊपर उन्होंने लाल और सफ़ेद खानों वाला प्लास्टिक चढ़ाया था।
’जोकर है जोकर, वह सोचता है कि हमारे बच्चे मेज़ कुर्सी पर बैठकर नाश्ता करेंगे।’ गूगल ने हंसते हुए कहा।
‘’कार्लो कितना प्यारा इंसान है न, गूगल?’ अपनी गृहस्थी पर मैं फूली नहीं समा रही थी, ‘वो हमारा कितना ख़याल रखता है।’
‘वो तो ठीक है पर इसका भाई मुझे ठीक नहीं लगता।’
‘हमें उससे क्या लेना देना है?’
बच्चे अभी दो दिन के भी नहीं हुए थे कि सुबह सुबह कान फ़ोड़ आवाज़ के साथ ऐसा लगा कि धरती काँप रही हो। गिरते पड़ते हम बाहर भागे।
‘माँ कहती थीं कि प्रलय होने में अब देर नहीं।’ मैंने घबराते हुए कहा तो गूगल ने मुझे अपनी सीने से चिपका लिया। स्टेशन के बाहर संतरी रंग की जैकेट्स पहने कुछ लोग सड़क खोद रहे थे। बच्चों की कूं कूं सुनकर हम उल्टे पाँव स्टोर में लौट आए। बेचारों पर क्या ग़ुज़र रही होगी। शुक्र था कि उनके कान और आँखों से अभी तक झिल्ली नहीं उतरी थी। न जाने क्यों मेरा मन घबरा रहा था कि हमारे अच्छे दिन अब पूरे होने वाले थे।
ज़रा आँख लगी ही थी कि अचानक इटैलियन रैस्टोरैंट की जाँच पड़ताल के लिए सफ़ाई विभाग के कर्मचारी आ धमके; मेरी तो जान सूख गई। भागने का न कोई रास्ता था और न ही समय।
‘बच्चों का क्या होगा? कहाँ जाएं, कहाँ छिपाएं?’ मैंने घबराते हुए गूगल से पूछा। मुझे विश्वास था कि वह हमारे लिए कोई न कोई रास्ता ज़रूर निकालेगा।
‘माइस कैन बी वेरी डेंजरस,’ (चूहे बहुत ख़तरनाक सिद्ध हो सकते हैं)। सफ़ाई अभियान वाले वेटर्स को बता रहे थे, ‘दे कैन डैमेज यौर बिल्डिंग टू। देयर फीसेज़ कैन किल यौर कस्टमर्स।’ (तुम्हारी इमारत को भी ये ख़तरा पहुंचा सकते हैं और इनके मल से तुम्हारे ग्राहकों की मौत भी हो सकती है) ज़मीन पर बिखरा काली कलौंजी सा हमारा मल मूत्र हमारी मौजूदगी की गवाही दे रहा था, जो उस सुबह साफ़ नहीं किया गया था; मालिक की ग़ैरहाज़िरी में सारे वेटर्स सुस्त पड़े थे।
‘यू स्पीक इटैलियानो?’ (क्या तुम्हें इटैलियन भाषा आती है?)? ‘ओनर नौट हियर।’ (मालिक यहाँ नहीं है)। टूटी फूटी अंग्रेज़ी में कार्लो ने उन्हें टरका दिया कि मालिक की इजाज़त के बग़ैर वे मारचैल्लो का निरीक्षण नहीं कर सकते।
‘वेन द कैट इज़ अवे, माइस विल प्ले!’ सफ़ाई अभियान वाले ने हंसते हुए कार्लो की तरफ़ देखकर अपनी आँख दबा दी। कार्लो की हाज़िर जवाबी से हम उस समय बच गए। दो दिन बाद आने को कहकर वे दफ़ा हुए तो हमारी जान में जान आई।
उसी दोपहर को मारचैल्लो का मालिक लौट आया, उसके साथ उसकी नई माशूका, आडुआ, भी थी, जो अपनी बाहों में एक सफ़ेद बिल्ली, पिंकी, को उठाए उसका गिलगिला थूथना चूमे जा रही थी। पिंकी के बालों में गुलाबी रिब्बंस बन्धे थे और गले में सुनहरी पट्टा बन्धा था। गूगल और मैं इस तमाशे का मज़ा ले ही रहे थे कि पिंकी कूदकर एकाएक सीधे भंडारगृह की ओर भागी। घबराकर हम दोनों भी उसके पीछे हो लिए। कार्लो कहीं व्यस्त था। पिंकी ने सीधे बच्चों पर हमला किया और हम दाँत किटकिटाते रह गए और वह ‘सर्च’ को निगल गई। तभी पिंकी को ढूंढते हुए आडुआ भी आ पहुंची और उसे गोद में उठा लिया।
‘वेल डन पिंकी।’ कहती हुई आडुआ ने चिल्लाकर सारा मोहल्ला इकट्ठा कर लिया।
‘डार्लिंग, यू हैव माइस इंफैस्टेशन इन यौर जोइंट।’
वेटर्स को इकट्ठा करके मालिक चीख़ने चिल्लाने लगा कि वे मुफ़्त की खा रहे थे और ये कि उसका रैस्टोरैंट बन्द हो जाएगा तो देखेगा कि वे सब कहाँ जाएंगे। सब के सब सफ़ाई में जुट गए।
हम ‘सर्च’ की मौत का शोक भी न मना सके। मौका देखकर कार्लो ने हमें एक जूतों के डब्बे में बन्द करके सीढ़ियों के ऊपर बने एक आले में छिपा दिया। रात को मालिक ने मारचैल्लो में जगह जगह वनीला-मोमबत्तियाँ जला दीं। बदबु के मारे हमारी नाक में दम था, सिर फटा जा रहा था। यहाँ अब हम सुरक्षित नहीं थे।
दूसरे दिन सुबह कार्लो हमें उठाकर पास की ही एक नई इमारत, पार्कवियु के अहाते में छोड़ गया; जहाँ धूल के अलावा एक चिड़िया का बच्चा तक न था। लन्दन की इस महँगाई में लोग इतने महँगे फ़्लैट्स ख़रीदने की हालत में नहीं थे। पूरी की पूरी इमारत ख़ाली पड़ी थी।
पूरा एक दिन बीत गया पर कार्लो का कहीं पता नहीं था; उसपर हमें पूरा भरोसा था; कहीं बेचारा बीमार तो नहीं हो गया! थोड़ा बहुत खाना जो उसने डिब्बे में रख छोड़ा था कब का ख़त्म हो चुका था।
बच्चों की आँखें खिल गई थीं और उन्होंने हिलना डुलना शुरु कर दिया था। छोटे छोटे वे गुलाबी बच्चे इतने प्यारे लगते थे कि डर के मारे मैं आँखें फेर लेती कि कहीं उन्हें मेरी ही नज़र न लग जाए। उन्हें भूख सताने लगी थी। दूसरी शाम को गूगल और मैं भोजन का प्रबन्ध करने के लिए बेकर स्ट्रीट पर निकले। वैस्टमिंस्टर के इलाक़े में सफ़ाई अभियान ज़ोरों पर था। कूड़ा-गाड़ियाँ दिन में दो दो बार सड़कों के चक्कर लगा रही थीं। सड़क पर एक तिनका तक न था। इटैलियन रैस्टोरैंट में झाँका कि शायद कार्लो दिख जाए।
भटक भटका कर हम बेज़ार हो चले थे कि मैंने सड़क के दूसरी ओर फ़ुटपाथ पर एक बूढ़ी औरत को देखा, जिसके हाथ से मैकडौनल्ड का थैला गिर गया था और वह बेख़बर सी चली जा रही थी।
‘गूगल, जल्दी करो।’ मैंने गूगल का ध्यान मैकडौनल्ड के थैले की ओर दिलाया।
’ख़ाली होगा।’ उसने अधमरी आवाज़ में कहा।
‘ये लोग कूड़ा-करकट सिर्फ़ डस्टबिंस में ही फेंकते हैं।’ मैंने झल्लाते हुए कहा। तेल के ताज़ा धब्बों से रचे उस लिफ़ाफ़े में ज़रूर चिप्स होंगे; मेरे मुँह में पानी भर आ गया।
‘ठीक है जानम,’ कहता हुआ गूगल स्टेशन के बाहर रुकी हुई चौहत्तर नम्बर की बस के नीचे पहुंच गया। बस के आगे ही एक ब्लैक-कैब आकर रुकी, जिसकी हैज़र्डस लाइट्स जलने बुझने लगीं। एक क्षण को मन हुआ कि गूगल को वापिस बुला लूँ पर शायद भूख हावी थी मुझ पर या मुझे ख़तरे का अन्दाज़ा नहीं हुआ।
यकायक ब्लैक-कैब के ड्राइवर ने हैज़र्ड्स लाइट्स बुझा दीं और चल पड़ा। पीछे वाले ड्राइवर ने रुकती हुई बस को आगे बढ़ा दिया।
‘गूगल, ओह, मेरे गूगल,’ मैं ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगी। सड़क पार उसको मेरी आवाज़ क्या सुनाई देती। वह बस के पिछले पहिए के नीच आ गया। मैं जड़ हो गई। पीछे से आती हुई बसों ने उसका कचूमर बना डाला था। काश कि मैं भागकर उसे अपने सीने में छिप लेती पर मुझसे कुछ न हुआ। लगा कि जैसे मेरा दिल चकनाचूर हो गया हो। माँ शायद इसे ही चूहे की मौत मरना कहती थीं!
आँखें तो हम दोनों की ही कमज़ोर थीं पर क्या उसने अपने कान भी बन्द कर लिए थे? मुझे ही क्या ज़रूरत थी उसे मैकडोनल्ड की ओर दौड़ाने की? चिप्स के लालच में बेचारे गूगल की जान गई। फ़ुर्ती दिखाता तो गूगल यूँ न मरता। अच्छे रहन सहन की वजह से हम दोनों ही मुटा गए थे। अब मेरा और बच्चों का क्या होगा? गूगल के बग़ैर ज़िन्दा रहने का क्या फ़ायदा?
सड़क की भीड़-भाड़ से मुझे बहुत डर लगने लगा था और पार्कवियु के बड़े बड़े कमरे ख़ालीपन से भरे पड़े थे; बिना बाहर निकले भोजन का इंतज़ाम असम्भव था। मुझमें उठ पाने की भी शक्ति ही नहीं बची थी। गूगल ने एक बार बताया था कि भूख लगने पर साँप और मछलियाँ अपने बच्चों को खा लेते हैं।
‘तुम भी न गूगल, कभी कभी ऐसी जलूल बकवास करते हो।’ गूगल से मैं हमेशा आदर से पेश आती थी पर न जाने क्यों मुझे उस दिन उस पर बहुत ग़ुस्सा आया था, कोई अपने बच्चों को भला कैसे खा सकता है? पर मुझे वह बात इस समय क्यों याद आई। क्या मैं भी… आदमी आदमी को खा लेता है, पशु पक्षी अपने ही जाए को खा जाते हैं तो इनमें से एक को खाकर मैं अपनी जान नहीं बचा सकती? मैं बच जाऊंगी तो शायद बाकी की पाँच भी बच जाएं। मुझे ख़ुद से घृणा होने लगी। मैंने ऐसा सोचा भी कैसे? ऐसा सोचने से पहले मैं मर क्यों न गई?
एक एक करके मैं सभी बच्चों को छू छू कर देख रही थी कि उनकी साँस चल रही थी कि नहीं। कभी लगता कि धड़कन थी तो कभी लगता कि ये मेरा वहम ही था। मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आँखें खुलीं तो देखा कि दरवाज़े के बीचों बीच खड़ा गूगल मुस्कुरा रहा था। उसके कुचले हुए शरीर को मैंने ख़ुद अपनी आँखों से कूड़ा उठाने वाली मशीन को निगलते देखा था। गूगल ज़िन्दा था। वह सब सम्भाल लेगा। फिर लगा कि कार्लो खाना लिए आया है; अरे नहीं, ये तो उसका भाई दीनो है। शायद कार्लो ने उसे हमारी ख़ैर ख़बर लेने भेजा हो। उसने बच्चों को उठाकर एक गत्ते के डिब्बे में डाला और जल्दी से चल दिया।
‘हे भगवान, मेरी जान ले लो और बाँट दो इन नन्हे मुन्ने गुलाबी बच्चों में; इनका इस दुनिया में अब तुम्हारे सिवा कोई नहीं है।’
मैंने दीनो को रोकने की बहुत कोशिश की पर उसने मुझे एक लात मार कर दूर फेंक दिया। काश कि वह मुझे भी साथ ले जाता! मेरी हालत को देखकर उसने सोचा होगा कि मैं अब मरने ही वाली थी या प्रयोग के लिए मेरी उम्र निकल चुकी थी।
‘कार्लो, तुम कहाँ हो, देखो, तुम तो जानते हो कि गूगल को पिंजरे में कैद होने की जगह मर जाना अधिक पसन्द था; उसके बच्चों को प्रयोगशाला में जाने से रोको।’
‘जानम, परेशान मत हो, वहाँ हमारे बच्चे कम से कम पाँच साल तो अवश्य जियेंगे,’ मुझे लगा कि जैसे गूगल ने मेरे कान में कहा; न चाहते हुए भी मेरी आँखे ख़ुद ब ख़ुद बन्द होती चली गईं।
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11 नवम्बर 2010
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