कबाड़

दिव्या माथुर

‘गद्दे क्या सस्ते आते हैं, रक्षित? मैं मर जाऊंगी तो तुम्हें नया गद्दा फेंकना बड़ा बुरा लगेगा।’ कैंसर से ग्रसित इन्दिरा की यह बात बहु रीटा को तो ठीक ही लगी थी किंतु बेटा रक्षित भावविह्यल हो उठा था।  

‘यू नो रीटा, बचपन में बिस्तर गीला करने के लिए मां ने मुझे कभी नहीं डांटा। वह मुझे सूखे में सुलाकर ख़ुद मुड़-तुड़ कर सो जाया करती थीं,’ रक्षित ने रीटा को बताया तो वह उसे बच्चों के पेशाब निकल जाने के कारण गिनाने लगी। उसके कहने का तात्पर्य यह था कि रक्षित बचपन में असुरक्षित महसूस करता होगा। बात घूम-फिर कर वहीं आ गई कि मां की परवरिश में अवश्य कुछ कमी रही होगी।    

क़रीब बीस साल पहले ख़रीदा गया था यह गद्दा, जो इन्दिरा के राजदुलारे पोता-पोती, पीयुष और पिया के उछलने-कूदने की वजह से तार तार हो चुका था। इस उम्र में भी वह आड़ी तिरछी सोकर ही अपना काम चला रही थीं क्योंकि पीयुष और पिया कहानियां सुनते-सुनते उसी के बिस्तर पर सो जाते थे।

किसी भी चीज़ को फेंकना इन्दिरा के बस में नहीं था; पूरा घर अनाप-शनाप वस्तुओं से भरा था। होली दीवाली पर भी जब वह सफ़ाई करतीं या करवातीं तो तीन ढेर लगाकर बैठ जातीं, एक अच्छा वाला जिसे फेंकने की वह सोच ही नहीं सकती थीं, दूसरा जिसे वह रिश्तेदारों अथवा पड़ौसियों को देकर अनुग्रहित कर सकती थीं और तीसरा जिसे वह बेमन से ही सही, पर फेंक सकती थीं। अंत में वही ढाक के तीन पात; एक एक करके, सारा का सारा सामान वापिस अपनी जगह पर पहुंच जाता; बेटा-बहु माथा पीट कर रह जाते।

रक्षित के विवाह बाद, जैसे ही इन्दिरा बड़ौदा गईं, रीटा ने बैठक की काया पलट दी थी; रक्षित की सुनती तो वह सारा कबाड़ आज भी बैठक में सजा होता।

‘घर को नाई की दुकान बना रखा है। एक चैरिटि-शौप क्यों नहीं खोल लेते?’ रक्षित के मना करने के बावजूद रीटा ने पुराने तैल चित्रों को उतारकर दीवारों पर सस्ते और भड़कीले कैनवास पर चिपके हुए रंग-बिरंगे चित्र लगा दिए। शीशे की अल्मारियों से पुराना समान, जिसे वह ज़्यादातर ‘कबाड़’ के नाम से पुकारती थी, बक्सों में भरकर उसने इन्दिरा के शयन कक्ष की अल्मारियों में भर दिया। उनकी जगह सजा दिए गए दहेज में आए चमकते हुए नकली धातु और शीशे के बर्तन, जो आर्गोस और एच-सैमुअल्स जैसे सस्ते स्टोर्स से खरीदे गए थे। यदि रक्षित न टोकता तो रीटा पुराने सामान को कूड़ेदान में फिकवा कर ही दम लेती।

इन्दिरा वापिस आईं तो उसे लगा कि जैसे वह किसी और के घर में आ गई हो। बेटा आंखें चुरा रहा था; वह दिल पर पत्थर रखे चुप रहीं। पति की युद्ध में अचानक मृत्यु हो जाने के बाद इन्दिरा एक दूसरी विधवा शिवोन के साथ कार-बूट-सेल्स में जाने लगीं थीं। बच्चों को सुबह स्कूल में छोड़कर वे दोनों बाज़ारों में घूम-घूम कर छोटी बड़ी चीज़ें ख़रीद लातीं – तस्वीरें, मूर्तियां, सिक्के, स्टैम्प्स, केतलियां, मास्क्स, चांदी और पीतल के बर्तन और ऐसी-ऐसी चीज़ें जिनके इस्तेमाल के बारे में भी वे कुछ नहीं जानती थीं। यह आदत शिवोन की मृत्यु के बाद ही छुटी, जो अपना बहुत सा सामान इन्दिरा को दे गई थी। शिवोन के अपनी तो कोई औलाद थी नहीं इसलिए उसका लाड़-दुलार भी रक्षित को ही मिलता था। रक्षित मां और शिवोन दोनो का सम्मान करता था और इसलिए इस कूड़े से रक्षित को भी लगाव हो गया था।

इन्दिरा जिसे ‘माइ ट्रैशर’ कहा करती थीं, शिवौन की मौत के बाद गत्तों के डिब्बों में बन्द न जाने कब से सूरज की रौशनी देखने को भी तरस गया था।

घर में तीन शयन कक्ष थे; मास्टर बेडरूम में रक्षित और रीटा, दरमियाने कमरे में इन्दिरा और उसका कबाड़ और छोटे कमरे में पीयुष और पिया एक साथ सोते थे। रीटा को वैसे तो बहुत से गिले-शिकवे थे किंतु उसकी दो मुख्य शिकायतें थीं; एक तो यह कि पीयुष और पिया एक कमरे में सोने को मजबूर थे और दूसरी यह कि इन्दिरा के कमरे का कबाड़ फेंक क्यों नहीं दिया जाता।

‘यू नो रक्षित, इस देश के रुल्स के मुताबिक एक दस साल के बच्चे को सैपरेट रूम में सोना चाहिए। पीयुष को पिया के साथ सुलाना अन-एथिकल है, ग़ैरकानूनी है।’ बड़ा घर लेने के लिए रीटा ने रक्षित का जीना हराम कर रखा था। बड़े घर के लिए जब उन्हें मौर्गेज नहीं मिली तो उसने अपनी खीज इन्दिरा के सामान पर उतारनी शुरु कर दी। जीवन भर की कमाई को जब रीटा ‘कबाड़’, ‘कूड़ा-कर्कट’, ‘प्योर शिट’ या ‘जंक’ आदि नामों से पुकारती तो इन्दिरा तड़प के रह जातीं।

‘इस कबाड़ को फ़िकवा दें तो पिया का बिस्तर यहां आसानी से लगाया जा सकता है। बिस्तर न सही, उसके कपड़े और खिलौने तो ज़रूर ही फ़िट किए जा सकते हैं।’ सप्ताहंत पर रीटा का गाना शुरु हो जाता।  

‘मेरे मरने के बाद तुम लोग इस कबाड़ को चाहो तो फिंकवा देना।’ जब से इन्दिरा को ब्रैस्ट-कैंसर हुआ था, वह ऐसी ही उल्टी सीधी बातें करने लगीं थीं और यह सोचकर कि मां न जाने कितने दिन की मेहमान हैं, बेटा उनकी तरफ़दारी करने लगा था। फिर भी उन्हें लगने लगा था कि इस कूड़े को अपने जीते जी ही बुहार दें तो अच्छा था।

इन्दिरा के इलाज में लगभग दस महीने लग गए और इस बीच पूरा परिवार अस्त-व्यस्त हो गया। रीटा ने भी कबाड़ की शिकायत करना लगभग बन्द कर दिया था; वह जानती थी कि रक्षित ऐसे समय में उसकी एक नहीं सुनेगा; न जाने इन्दिरा अब कितने दिन की मेहमान हो। हर बार जब वह कीमोथैरेपी करवा के लौटतीं तो दो-दो दिन तक वह बिस्तर पर पड़ी रहतीं। उल्टियां रुकने का नाम ही नहीं लेतीं; पानी की कमी हो जाने पर उन्हें अस्पताल में फिर भरती कर लिया जाता। रीटा और रक्षित के आग्रह पर उन्होंने विग लगवा ली थी जो उन्हें बेहद नापसन्द थी, जिसे वह केवल पियुष और पिया के सामने ही पहनती थीं ताकि गंजी टांट देखकर कहीं उन्हें सदमा न पहुंचे।   

अपने इस लम्बे इलाज के दौरान अस्पताल के कई स्वयं-सेवक इन्दिरा के अच्छे मित्र बन गए थे, जिनमें से अधिकतर ने अपना बुढ़ापा समाज-सेवा में लगा रखा था। इन्दिरा जब थोड़ी ठीक हुईं तो वह भी उनके साथ कैंसर रिसर्च चैरिटि के कार्य में लग गईं। उन्हें लगा कि बुढ़ापा भी अच्छी तरह से भी काटा जा सकता था; कभी टी-डांसिंग में जातीं तो कभी टी-पार्टीज़ में; बिंगो का तो उन्हें ऐसा चस्का लगा कि हर शाम को वह विक्टोरिया-क्लब में बिंगो खेलने जाने लगीं। अभी तक वह अपनी पैंशन घर या बच्चों पर ख़र्च कर देती थीं पर अब उन्हें घर में रहने की फ़ुर्सत ही नहीं मिलती थी। रीटा को अब घर बाहर दोनों सम्भालने पड़ रहे थे; बच्चे भी पूरे समय उसी के सिर पर चढ़े रहते थे। वह अपनी ख़ीज और ग़ुस्सा किस पर उतारती?  

‘मां को हो क्या गया है? जब देखो तब वो टी-डांसिंग जा रही हैं। बिंगो से भी आते आते उन्हें रात हो जाती है आजकल।’

‘तो क्या तुम चाहती हो कि वह इस उम्र में भी हमारे बच्चों के साथ घर में बैठी रहें?’

‘पिया और पियुष उन्हें कितना मिस करते हैं, यू नो।’ रीता ने बाद बदली।  

‘कम से कम अब उन्हें अपने ढंग से जीने दो।’

अभी इन्दिरा पूरी तरह स्वस्थ हुई भी नहीं हुई थीं कि एक नियमित परीक्षण के दौरान उनके स्तन में दो और गांठे पाई गईं। इस बार उन्होंने दो वादे किए; एक तो वह अब फिर से कैंसर का तकलीफ़देह इलाज नहीं करवाएगीं और दूसरा यह कि अपने ‘ट्रैज़र’ को बेचकर जो भी धन मिलेगा, वह कैंसर चैरिटि को दे देगीं।

‘रक्षित, बेटे ई-बे पर मेरे इस कूड़े-करकट को तू अब बेच ही दे?’ इन्दिरा ने कहा।

‘क्यों मां, तुम्हारा दिल इस जंक से भर गया है क्या?’ रक्षित उन्हें टाल देता कि जैसे उनकी मौत को टाल रहा हो। वैसे भी उसे समय ही कहां था। हालांकि रीटा ने ई-मेल्स करना सीख लिया था पर वह कम्प्यूटर-सैव्वी नहीं थी। अपने कबाड़ को बेचने के लिए बहु-बेटे से उसने कई बार कार-बूट-सेल्स में चलने को कहा पर वे दोनों टाल गए।

‘टाइम बर्बाद करने वाली बात है, मम। जितने का ये सामान बिकेगा उससे ज़्यादा तो हमें एक स्टाल का किराया देना पड़ जाएगा। आप कहें तो मैं इस कबाड़ को ब्लैक-बैग्स में भर कर सड़क पर रख देती हूं, सोमवार की सुबह औक्फ़ैम वाले ले जाएंगे,’ रीटा ने सोचा कि इससे पहले कि इन्दिरा का मन बदल जाए, इस कूड़े-कर्कट को बेचकर जो दो चार पाउंड्स हाथ में आएं, वही ठीक थे। उसने अपने भाई रंजीत को इस कबाड़ के बारे में बता ही रखा था।  

‘दिस इज़ औल रब्बिश सिस, पर तुम कहती हो तो मैं कबाड़ी बाज़ार में पता लगाता हूं।’ रंजीत एक नज़र में ही जान गया कि इस कबाड़ से दो ढाई हज़ार पाउंड्स खड़े किए जा सकते थे।

इन्दिरा उसके तिकड़मी और चलता-पुर्ज़े भाई को बहुत अच्छी तरह से जानती थीं। सामान बेचकर वह पैसा खा जाएगा और ऊपर से एहसान अलग जताएगा।

‘थैंक यू रीटा, मैंने अपनी फ़्रैंड डोरोथि से कह दिया है कि मेरे इस जंक का औक्शन करवा दे। उसका पार्टनर चैनेल-वन के लिए कार्यक्रम बनाता है, जिसमें दान किए गए सामान का औक्शन किया जाता है और औक्शन में मिले धन से कैंसर के रोगियों की मदद की जाती है।’

‘पर मम, रंजीत कल सामान लेने आ रहा है।’

‘सौरी रीटा, रंजीत को प्लीज़ मना कर दो।’

‘आपने रक्षित से पूछ लिया है क्या?’ रीटा ने ग़ुस्से में सोचा कि कहां तो वह उनके पीछे पड़ी थीं कि इस जंक को फिंकवाओ और अब जब उसने रंजीत से आने को कह दिया तो ये नख़रे!

‘रक्षित को क्या औबजैक्शन हो सकता है, रीटा?’ इन्दिरा ने उसे दो टूक जवाब दिया।

‘ये गोरे आपको कुछ नहीं देने वाले।’ रीटा ने एक और गोटी फेंकी।

‘मुझे कुछ नहीं चाहिए। जो भी पैसा औक्शन में मिलेगा वो सब का सब सीधा चैरिटि में जाएगा।’ रीटा तिलमिला कर रह गई। 

‘लगता है तुम्हारी मम्मी को टीवी पर एक्टिंग करने का शौक चढ़ा है।’ रात को रीटा ने रक्षित से कहा।

‘वाए-एवर नौट, हम तुम भी उस कार्यक्रम में भाग लेंगे।’ रक्षित ने मज़ाक में कहा।

‘क्या? मुझसे तो किसी ने पूछा भी नहीं।’

‘मम ने उस प्रोग्राम के बारे में हमें बताया तो था।’

‘पर मुझे यह नहीं मालूम था कि उसमें वे लोग घर में शूटिंग करेंगे।’

‘अरे, तुमने ‘अंडर दि हैम्मर’ प्रोग्राम नहीं देखा क्या?’

‘मुझे टीवी देखने का कभी समय भी तो मिले। एनिवे, मुझे कोई इंटेरेस्ट नहीं है तुम्हारी इस शूटिंग-वूटिंग में।’ अपनी अनभिज्ञता पर रीटा को और भी ग़ुस्सा आया।

‘अगर तुम्हें अच्छा नहीं लगे तो तुम उस दिन अपने भैय्या के यहां चली जाना।’ रक्षित ने उसे टाल दिया।

शूटिंग में दो पूरे दिन लगे। मन ही मन इन्दिरा और रक्षित सोच रहे थे कि रीटा अपने पीहर चली जाती तो अच्छा था किंतु वे यह देख कर हैरान रह गए कि वह तो ख़ुशी-ख़ुशी भाग दौड़ करती फिर रही थी; कभी क्रू को चाय पिलाती तो कभी खाना खिलाती और साथ ही साथ वह इन्दिरा का भी पूरा ध्यान रख रही थी। विदा के समय सभी ने एक आवाज़ से कहा कि बहु हो तो रीटा जैसी और रीटा ने भी यह महसूस किया कि जिस सामान की उसने हमेशा निन्दा की, इन्दिरा के उसी कबाड़ को टीवी वाले इतना महत्व दे रहे थे।

आख़िरी दिनों में डोरोथि, वेरा और विंस्टन ने इन्दिरा को इस तरह से सम्भाल लिया कि रीटा और रक्षित को कोई परेशानी नहीं हुई। वे बारी-बारी इन्दिरा के पास रहते, उसे गीता और बाईबल पढ़ के सुनाते, संगीत सुनते और गप्पें मारते। जब तकलीफ़ में होती तो इन्दिरा की मसाज करते या बस उसे सीने से लगाए धीरज बन्धाते।

जिस दिन टी वी पर लाइव औक्शन था, इन्दिरा बहुत तकलीफ़ में थी। रीटा और रक्षित को कार्यक्रम में भाग लेने के लिए अकेले जाना पड़ा।

‘डियर डियर इंडिरा, वी आर वेरी प्राउड औफ़ यू। यौर डोनेशन औफ़ औलमोस्ट टू हंड्रेड थाउज़ैंड पाउंड्स विल गो ए लौंग वे टु हैल्प अवर चैरिटि। थैंक यू सो वेरी मच। ग़ौड ब्लेस यू इंडिरा।’ कैंसर रिसर्च के निदेशक ने टी वी पर इन्दिरा के ‘युनीक कलेक्शन’ के बारे में और भी बहुत कुछ बताया।

‘यू डैविल, इंडिरा।’ उनके मित्र ख़ुशी में उन्हें चूम रहे थे।

रीता और रक्षित को काटो तो खून नहीं; उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि इन्दिरा के कबाड़ की इतनी कीमत होगी। वे भागे-भागे घर पहुंचे।

अपने घनिष्ट मित्रों के बीच इन्दिरा चैन की नींद सो रही थीं।    

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