
दिव्या माथुर
जैट-एयरवेज़ के हवाई जहाज़ में बैठी थी। उड़ान लन्दन से मुम्बई के लिए रवाना हुई ही थी कि मैंने अपने पीछे से एक विदेशिनी की भारी आवाज़ सुनी।
‘स्वामी जी, आप यहाँ मेरी सीट पर बैठ जाइए,, बीच वाली सीट पर आप व्यर्थ परेशान होंगे,’
धन्यवाद, राधा,, तुम फ़िक्र नहीं करो; मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है,’ एक मुलायम आवाज़ सुनाई दी।
मेरे साथ की सीट पर बैठे हुए गेरुए वस्त्र और रुद्राक्ष की माला धारण किए हुए उस मुलायम आवाज़ के स्वामी पर मेरी नज़र पड़ी तो उन्होंने अपनी एक मोहक मुस्कुराहट मुझे भी भेंट कर दी। उनके काले लम्बे केश चौड़े माथे पर झूल आए थे।, गेरुआ कुर्ता उन पर ऐसे फब रहा था कि उनके सहयात्रियों की आँखें उन्हीं पर टिकी थीं।
पेय में मैंने हमेशा की तरह वोदका और संतरे का जूस लिया और स्वामी जी ने कुछ भी नहीं,, न ही एयर-हॉस्टेस ने उनसे पूछा। भोजन में मैंने चिकन-थाली ली और खाने में जुट गयी; स्वामी जी की बांह मेरी बांह को छू रही थी; न जाने क्यों मुझे अजीब सा लग रहा था।
स्वामीजी, कैन वी ईट चिकन?’ राधा ने पूछा।
‘लाश हज़म कर सको तो ज़रूर खा लो,,’ स्वामी जी ने अपनी आवाज़ में अत्यधिक चीनी घोलते हुए अंग्रेज़ी में ही जवाब दिया।
‘धन्यवाद, स्वामी जी,,’ कहते हुए उनके सारे चेले-चपाटों ने निरामिष भोजन ले लिया। स्वामी मुझे और मेरे भोजन को निहार रहे थे; मैंने घबरा कर मुँह फेर लिया, और चिकन को छोड़ कर बाक़ी सब खा लिया, वो भी बड़ी बेचैनी के साथ।
स्वामी जी से परिचित एयर-हौस्टैसेज़ उनकी ख़ातिर में जुटी थीं, वह शायद उनके नियमित यात्री थे। हमारी पीछे वाली भक्तिन किसी को स्वामी जी के विषय में बता रही थी, ‘स्वामी जी का आश्रम मुम्बई में है, हम सब वहीं ठहरेंगे, समय मिले तो आप भी दर्शन दीजिएगा, हमें बहुत खुशी होगी।’
जैसे ही हवाई-जहाज़ में अन्धेरा किया गया तो स्वामी जी मुझ से क्षमा मांगते हुए उठ खड़े हुए, मैंने उठ कर उन्हें जाने के लिए जगह दे दी और उनके लौटने के इंतज़ार में टहलने लगी पर वह वापिस नहीं आए। मैं जब शौचालय क़तार में लगी थी तो मैंने उन्हें परदे के पीछे एक फर्स्ट क्लास सीट पर बैठे देखा।
‘स्पैशल व्हिस्की फ़ॉर यू एंड यौर फ़ेवरिट चिकन प्लैटर,,’ एयर-हौस्टैस उन्हें एक अच्छे गिलास में नीट-व्हिस्की और शीशे की प्लेट में भोजन सर्व किया।
थैंक यू, लिडिया, यू आर ए डार्लिंग,’ स्वामी जी ने कुछ उचक कर उसका गाल चूम लिया।
यू आर वेलकम स्वामी जी, ऐनिटाइम।’