
मनहूस
– दिव्या माथुर
पार्क-रौयल अंडरग़्राउंड-स्टेशन के बाहर मुस्कुराता हुआ वह युवक हर रोज़ की तरह आज भी वहाँ खड़ा था। हर सुबह की तरह आज भी उसने अपने हैट के किनारे को छूकर अनिता का अभिवादन किया। अनिता भुनभुनाने लगी, ‘मनहूस कहीं का, कोई काम-धाम नहीं है क्या?’
न चाहते हुए भी अनिता अपना हाथ हिला कर उसका अभिवादन स्वीकार कर लिया और फिर रास्ते भर सोचती रही कि क्यों वह उस मनहूस युवक को नज़रान्दाज़ नहीं कर पाती?
कहां अच्छा कमाती-खाती अनीता और कहां वो, न जाने वह कब से नहाया नहीं हो। उसके लम्बे-चौड़े शरीर पर बच्चों जैसा मासूम चेहरा कुछ अजीब सा लगता था। कन्धों पर झूलते सुनहरी उलझे हुए बाल और बेतरतीब बढ़ी हुई सुनहरी दाढ़ी में वह हर सुबह पार्क-रौयल के द्वार पर आ खड़ा होता। भिखारी होता तो वह अपना हैट ज़मीन पर रखकर बैठ जाता, जिसमें यात्री सिक्के फेंक सकें पर वह तो खड़ा हुआ सिर्फ़ उसे देख कर मुस्कुरा देता है।
जब कभी किसी कारणवश अनिता को दफ़्तर जल्दी जाना होता है, अनिता की नज़रें उसे दूर दूर तक ढूंढती हैं; इस वक्त वह कहां होगा? उसने अपने सहकर्मियों से उस मनहूस युवक की चर्चा की तो उन्होंने उसे ख़बरदार रहने को कहा। एक सहकर्मी ने तो उसे पुलिस को ख़बर कर देने की भी राय दी; पुलिस किसी को सिर्फ़ मुस्कुराने के जुर्म में तो गिरफ़्तार नहीं कर सकती।
उस दिन बैंक-हौलिडे थी; पूरा ब्रिटेन बिस्तर में पड़ा सुस्ता रहा था। एक अनिता का ही दफ़्तर था जो खुला था। बजाए चिड़चिड़ाने के वह ख़ुश थी कि आज वह बिना किसी विध्न के काम करेगी क्योंकि फ़ोन की घंटियां आज नहीं बजेंगी।
उसे वह दूर से ही दिखाई दे गया, वह तो सोच रही थी कि आज वह नहीं आएगा, पूरा देश छुट्टी मना रहा है।
तभी न जाने कहां से अचानक दो लफंगे प्रकट हुए और गालियां बकते हुए अनिता का हैंड-बैग खींचने लगे।
‘यू पाकी बिच, गिव अस यौर हैंडबैग…’ उनमें से एक ने चाकू निकाल लिया। कांपते हाथों से अनिता अपने हैंडबैग को गले से निकालने का प्रयत्न कर रही थी किंतु हैंडबैग की पट्टी उसके कोट के कौलर में अटक गयी थी।
एक लड़का अनिता के चेहरे के आगे चाकू घुमाने लगा और दूसरा उसका खींचने लगा।
‘लीव हर एलोन…’ कहते हुए मनहूस बिना सोचे समझे उन ग़ुंडों से भिड़ गया। उसके हाथ-पांव ढिलमिल्ल से थे जैसे उनमें ताक़त ही न हो; पल भर में ही उन ग़ुंडों ने उसे ज़मीन पटक दिया और उसे बेदर्दी से पीटने लगे; वह ज़ोर-ज़ोर से ‘हेल्प हेल्प’ चिल्लाने लगा तो एक गुंडे ने ने उसके पेट में चाकू घोंप दिया। एकाएक जैसे खून का फव्वारा फूट पड़ा, अनिता और उन दोनों लड़कों के कपड़ों पर भी कुछ बूंदे छिटक गयीं थीं; बूंदों का आकार तेजी से बढ़ रहा था। इस सबसे बेपरवाह लड़के अब भी उसका बैग खींचने में लगे थे।
छुट्टी के कारण सड़क सुनसान थी; मदद के लिए कोई नहीं आएगा। अपने हैंडबैग की लंबी पट्टी को गर्दन से निकालने के बहाने अनिता अपने दोनों हाथ पीठ के पीछे ले गई और एमेरजैंसी नंबर डायल कर दिया।
‘ब्लडी-शिट्ट, स्मैश हर फ़ोन, डूड,’ कहते हुए एक गुंडा अनिता की ओर लपका। शोर सुन कर सामने की कौर्नर-शौप वाला दुकानदार बाहर निकल आया था और खून देख कर ‘हैल्प-हैल्प’ चिल्लाने लगा। गुंडे झट भाग खड़े हुए।
‘एडम इज़ मेंटलि-रिटार्डेड, यू नो, यहीं कहीं रहता है,’ दुकानदार ने अनिता को बताया और नीचे बैठ कर खून में नहाए uस युवक को सांत्वना देने लगा।
‘आर यू औलराइट, एडम?’ अनीता ने अपनी जैकेट उतार कर एडम के ज़ख्म पर डाल दी और खून बहने से रोकने का प्रयत्न करने लगी।
दर्द के बावजूद एडम मुस्कुरा दिया। एम्बुलेंस की आवाज़ सुनाई दे रही थी। अनीता को बेहद पछतावा हो रहा था कि उसे कितना गलत समझती रही थी।
तभी पुलिस की कार भी या पहुंची; वे अनिता से कुछ सवाल कर रहे हैं।
‘वेट ऐ मिनट,’ कहते हुए अनिता एम्बुलेंस में एडम के सिरहाने जा बैठी।
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