मुसाफ़िर

हर शख़्स मुसाफ़िर है,
मुसाफ़िर से गिला कैसा
कुछ दूर चला संग वो,
फिर उससे गिला कैसा

हर शख़्स का किरदार अलग,
ख़्वाब अलग, मंज़िल अलग
वो राह चला अपनी,
राही से गिला कैसा

रेशम सी थी कुछ गाँठें,
खुल जातीं आहिस्ता से
जब काट दिया धागा,
धागे से गिला कैसा

इक साँस का झूला सा,
सरगम सी हवाओं पर
आए या कि ना आए,
साँसों से गिला कैसा

जो आज मिला है,
मुमकिन है न कल होगा
जो छूट ही जाना है,
फिर उस से गिला कैसा

ये खेल दिमाग़ी सब,
उलझन का है सब सामाँ
सामाँ है जो उलझन का,
उलझन से गिला कैसा

हर शख़्स मुसाफ़िर है
मुसाफ़िर से गिला कैसा
कुछ देर तो संग बैठा,
संगदिल से गिला कैसा

*****

– डॉ. नरेन्द्र ग्रोवर (आनंद ’मुसाफ़िर’)

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