एक क्षितिज

ऐसा लगता है कि समय
हौले-हौले चुपचाप
सरकता जा रहा है
चुपके-चुपके।

ऐसा लगता है कि
जैसे बालू के ढेर पर रक्खे हों पैर
और रिसते जा रहे हों रजकण,
तलवों के नीचे से,
धरा खिसक रही हो
पैरों तले से।

ऐसा लगता है कि ज़िन्दगी
मेरी झोली से छनती जा रही है,
जैसे बुनी हुई हो जाली से।
और लगता जीवन
एक छलनी है, ज़िन्दगी जिससे
झन कर बिखर
झोली को सूना बनाती जा रही है।

लगता है
मैं हूँ ख़ुशबू का एक झोंका
जो धरा पर आकर अनन्त आकाश
में
समाहित हो रहा है
ख़ुशबू उड़ जाने के बाद
रह जायेगा
पल भर को मेरा अहसास
फिर वह भी समय की तहों में
सि मिट जायेगा
और मिट जायेगा
सदा के लिए।
लुप्त हो जायेगा
सदा के लिये
और बन जायेगा
एक क्षितिज

*****

– परिमल प्रज्ञा प्रमिला भार्गव

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