रूपांतरित

मेरा भी रूपांतरण हो गया,
धरती थी मैं, वृक्ष हो गई,
धरती से उपजा यह तन मन,
धरती ने ही दी तुमको महक।

सुगंध भर दी साँसों में तुम्हारी,
रंग रूप दिया और दिया आनंद,
विश्वास भरा, रग रग में
लहू बनकर मैं दौड़ती रही
तुम्हारे तन मन के हर कोने में।

तुम्हें लगाया छाती से,
तुमको लोरी दे सुलाया रातों में,
प्यार से अपने नहलाया हर पल,
साँसों के वेग से आपत्तियाँ टालीं।
तुम्हारे दुख को पलकों से ढाँका
ख़ुशियों के साथ बाँहों में भर कर
सारा गगन घूम आयी।
तुम्हारी नन्ही नन्ही आँखें
मेरे चेहरे पर लिखी हैं,
मेरी हँसी तुम्हारे लिए बनी सरगम।

तुम्हारे बोल मुझे ऋचाओं से लगे,
मैं उन्हीं में खो गई और
मुझे पता ही ना चला मैं कब
भूमि से वृक्ष में रूपांतरित हो गई।

और हाँ, आज मैं वहीं –
एक वृक्ष बनकर खड़ी हूँ,
साथी के जैसी,
रक्षक के जैसी.
मित्र के जैसी।

जब तुम्हें लगे कोई नहीं सुनता,
मेरे पास आना
जब थक कर टिकना हो,
तो मेरे तन पर टिक जाना
जब धूप लगे कड़े वक़्त की,
मैं छाया बनकर खड़ी हूँ।
जब कठिन स्थिति हो,
मेरे नीचे शीतल पवन है
जो तुम्हें शीतलता से ढक लेगी।

यदि थके मन को गीत की अभिलाषा जागे,
जब निराशा जकड़ने लगे,
मेरी कोई टूटी शाखा देखकर जाग जाना,
जब ईश्वर को खोजना हो,
तो तुम मेरी सबल जड़ों को देखना
जो संदेशा देती हैं कि खोजोगे तो,
खड़े रह पाने का कारण खोज पाओगे,
रूपांतरित होने का कारण सोच पाओगे।

जीवन में यह रूपांतरण ही
जीवन है, उसे देख पाना ही ज्ञान,
ज्ञान से आगे निरंतर समर्पण ही
ईश्वर का प्रेम है।

*****

– भुवनेश्वरी पांडे

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