पागल मन यूँ ही उदास है

पागल मन यूँ ही उदास है,
कितना सुन्दर आसपास है।

काले बादल के पीछे से
झाँक रही इक किरण सुनहरी,
सारे दिन की असह जलन के
बाद गरजती झमझम बदरी,

बरखा की बूँदाबाँदी जब
चेहरे पर छींटे बिखराती,
भरी दुपहरी शीश नवा कर
धीरे से संध्या बन जाती,

छोटी-छोटी ख़ुशियों में ही
पलता जीवन का उजास है।

मन की गलियों शोर मचे जब
उच्चारण बस ओंकार का,
मंदिर में जब साथ झुकें सर,
होता विगलन अहंकार का,

काली मावस भी सज जाती
दीपो के गहनों से दुल्हन,
सुख-दुःख के छोटे पल मिलकर
बन जाता इक पूरा जीवन

जब मिल जाते एक साथ स्वर
नाद ब्रह्म तब अनायास है।

बादल का इक छोटा टुकड़ा
कठिन डगर में छाँव उढ़ा दे,
निर्जन राहों में जब सहसा
कोई आकर हाथ बढ़ा दे,

बिना कहे ही मीत समझ ले
अर्थ हृदय में छुपे भाव का,
हृदयो का बंधन ऐसा हो
जाड़े में जलते अलाव सा,

अपने ही अन्दर सुख होता,
दुःख इच्छाओं का लिबास है।

पागल मन यूँ ही उदास है…

*****

– मानोशी चटर्जी

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