
जो आलोचना और की करते
जो आलोचना और की करते
वह ही यदि हम निज की कर लें!
तो संभवत: इस जगती के
अनगिन ‘तापों का भव’ तर लें!
अन्य जनों में दोष देखना
बहुत सरल होता है!
पर निज में गुण – दोष खोजना
बहुत विरल होता है!
निज – आलोचना हो सके यदि तो
मानव बहुत परिष्कृत होगा,
जो अभाव हम जान न पाते
उनसे मन तब परिचित होगा!
परिष्कार केवल संभव है
यदि दोषों का भान प्रथम हो,
यह धारणा कि ‘दोषहीन हैं –
हम’, यही निवारण – ज्ञान प्रथम हो!
किसी ध्यान, अर्चन – पूजन से
पहले आत्म – विवेचन कर लें!
संभव है निज – विश्लेषण से
किंचित दोष – विसर्जन कर लें!
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– स्व. डॉ. शिवनन्दन सिंह यादव