तुम किसी भी विवशता – वश

तुम किसी भी विवशता – वश
मीत मत मुझको बनाओ!
मैं तुम्हारी ‘भावना का अंग –
कैसे बन सकूँ गा?’ यह बताओ!

‘मीत होना’ प्राण का
पारस्परिक अनुबंध है!
दो हृदय का मेल है यह,
इक चरम संबंध है!

जब हुआ संबंध यह
तो धड़कनें हिल – मिल गईं!
बिन किसी कारण अजाने
ज्यों दिशाएँ हिल गईं!

जा मिले आकाश – धरती
ज्यों क्षितिज पर सत्यत:!
युगल स्पंदन हृदय के
एक हों ज्यों वस्तुत:!

तुम रचो वह रीति, मेरे
भाव को बंदी बनाओ!
तुम रहो, मैं भी रहूँ; हम – तुम –
रहें, वह गीत गाओ!

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– स्व. डॉ. शिवनन्दन सिंह यादव

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