ख़ामोशी

छाया चारों तरफ़ है ख़ामोशी का अँधेरा
लगता है कभी न होगा चहकता सवेरा।
पेड़, पत्ते भी ख़ामोशी से ढके हुए है।
आकाश में परिन्दे भी ख़ामोश हैं॥

पर्वत से समुन्दर तक हवा भी ख़ामोश है।
बादलों के बीच बिजली भी ख़ामोश है।
सारे का सारा आलम ख़ामोश हो गया है।
तुम्हारी ख़ामोशी सबको अजनबी बना गई है।

तुम्हारी ख़ामोशी मेरा दुख, मुझको रुला गई।
यह ख़ामोश आवाज़ ख़ामोशी को बेहाल कर गई।
तुम मेरी आवाज़ों का शोर भी नहीं सुन पाओगे।
कब तक इन नज़रों को मुझ से छुपाओगे॥

मेरे आँसुओं का सवाल तुम नहीं देखोगे।
मेरी इन आँखों के अश्क़ भी सूख जाएँगे।
तुम्हारे ख़ामोश लबों की हँसी कभी मुस्कुराएगी।
तुम्हारी आवाज़ की सरगम कभी गुनगुनाएगी॥

इस ख़ामोशी में क्या राज़ छुपाए हो?
ज़ुबाँ नहीं खोलोगे, जबाब नहीं दोगे, ख़ामोश रहोगे?
तोड़ सको तो तोड़ दो ख़ामोशी की दीवार।
सोच के वह स्पर्श आज भी हूँ बेक़रार॥

तुम्हारी बेरुख़ी दिल की मजबूरी समझा रही है।
ख़ामोशी ख़ामोश क्यों है, ख़ामोशी बतला रही है।
तुम्हारी ख़ामोशी में मैं कैसे जी पाऊँगी।
क़िस्मत को कोई बदल नहीं पाया।
नसीब में जो लिखा था, वही सामने आया।
विरह के दर्द में लिपटी हूँ ‘जौहर’
ख़ामोशी की आग में जलना है॥

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– सरोजिनी जौहर

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