
दर्पण
टूटे दर्पण के टुकड़ों को मैं
मिला मिला कर जोड़ रही
जोड़ कर दर्पण को मैं अपने
बिम्ब अनेकों देख रही
एक टुकड़ा कहता है मुझ से
तू सुर-सुंदरी बाला है
बोला तपाक से दूजा टुकड़ा
तू मधुशाला की हाला है
तीजा टुकड़ा क्यूँ चुप रहता
बोला तू है ममता की मूरत
चौथा छोटा टुकड़ा बोला
दाग़ भरी तेरी सूरत
तोड़ कर गिनती बीच में सारी
बोला एक षटकोणी टुकड़ा
तू है मतवाली सी रूपा
और तू एक कुल-बाला है
पड़ा हुआ था किंचित सा कण
वह भी मुँह से बोल गया
मेरे रूप की अनगिन बातें
सहसा ही वह खोल गया
होकर निराश बातों से उसकी
मैंने मुख को मोड़ लिया
दर्पण के टूटे टुकड़ों को
दर्पण पर ही तोड़ दिया।
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– सविता अग्रवाल ‘सवि’