
सर्दी की सुबह और वसन्त
घर की फ़ेंस पर बैठी
मुटियाई काली गिलहरी
जमा हुआ –
आँगन, घर का पिछवाड़ा
और नुक्कड़ के पीछे छिपी
धैर्य खोती तेज़ हवा!
उड़ायेगी बवंडर
झर जाएँगी
पेड़ों से बर्फ़ की पत्तियाँ
छा जाएगा . . .
पतझड़ फिर से एक बार!
मैं यहाँ का नहीं हूँ,
अजनबी, अनाम
तभी तो जागता हूँ,
सर्दियों की रातों में
खोजता अपना पता
कहाँ से हूँ, क्यों आया यहाँ
फरवरी का माह है
और मुझे वसन्त का इंतज़ार है!
मेरे सामने तो श्वेत चादर ओढ़े
समय खड़ा है,
श्वेत और केवल श्वेत
शून्य से नीचे तापमान
मेरी हड्डि यों में समा चुका है
और सभी कहते हैं – प्रतीक्षा करो
केवल प्रतीक्षा।
मैं यहाँ प्रतीक्षाकुल खुले में खड़ा
काक भगौड़े सा
हवा में लहराता –
और यहाँ कोई भी नहीं
मैं भी नहीं . . .
और यह सर्दी की सुबह अन्तहीन क्यों है?
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– सुमन कुमार घई