
हिमपात और मैं
हिमपात . . .
क्यों करता हूँ
तुम्हारी प्रतीक्षा . . .
जानता हूँ कि तुम आओगे
अपनी ठंडी हवाओं के साथ
सुन्न हो कर – झड़ जाएँगे
अंग-प्रत्यंग . . .
पतझड़ के सूखे पत्ते की तरह।
फिर बाँसुरी की धुन नहीं उठेगी
इन नंगे पेड़ों से
यह अस्थिपंजर तो चीख उठें गे
करते आर्त्तनाद!
और कभी उठा के अंधड़
तान दोगे अपनी सफ़ेद चादर
आस-पास।
उस निस्तेज सूर्य के
उजाले के
दिशाहीन अन्धे को भेदना होगा
यह कफ़न
नया वसंत पाने के लिए
इसीलिए करता हूँ
तुम्हारी प्रतीक्षा हिमपात . . .
तुम्हारा स्वागत है
तुम्हारे ओढ़ाए
कफ़न का स्वागत है।
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– सुमन कुमार घई