
पैग़म्बर
पर्वत चोटी पे खड़ा था वह
बाँहें ऊपर की ओर फैलाए
शान्त स्थिर
गगन की ओर झाँकता . . .
काले पहरनों में वह
उक़ाब की तरह सज रहा . . .
उसके सम्मुख
एक सर झुका
फिर दो
तीन चार . . .
सर झुकते गये
सरों का हुजूम सा
एक सैलाब सा फैल गया
उसके सामने-
वह जो
पर्वत चोटी पे खड़ा था
शान्त सहज-चित
अम्बर की ओर ताकता . . .
झुके हुए सरों के क़ाफ़िले को
संबोधित कर उसने कहा–
आप लोग यूँ ही पीछे खड़े-खड़े
क्यों जड़ हो गए?
आगे बढ़ें
मेरे बराबर आयें
और अपने पाँव ज़मीं पर टिकायें
अब इस तरह महसूस करें कि
तुमने अपने बाजुओं से
जैसे आसमान को छू लिया हो
और चारों दिशाओं से
तुम्हारा आलिंगन भर गया हो!
अपने चक्षुओं को नील गगन में
तारों के संग जोड़ें
अपने हृदय में करुणा भर लें
पर्या वरण में अपने साँसों को महसूस करें
अपने तीसरे नेत्र को खुलने दें
तुम्हारे अन्दर का इन्सान
धीरे-धीरे जाग उठेगा
और फिर तुम
इन्द्रधनुष पर बैठ
दर्शक की भाँति
अपनी ज़िन्दगी को देखना . . .
आयें आगे तो बढ़ें
आप सभी पैग़म्बर हो
ज़रा आगे तो बढ़ें . . .!
*****
– सुरजीत