समर्पण
अनुभूतियों के सभी दरवाजे
बंद करने के बाद
धीरे धीरे खुलने लगती है –
संदेह की पुरानी खिड़कियां
बहस-दर-बहस का मरहम लगाकर
मिटते नहीं कलह के घाव
बल्कि
और अधिक गहरे होते जाते हैं।
ऐसे समय पोषित करें
मन के संयम के कमल
या छाँट दें वृक्ष की टहनी
जो बढ़ रही अनियंत्रित
पंछी के निष्कलंक हृदय को
बचाया जाए
निर्णय की कुल्हाड़ी के घात से
मैं उसके होने को महसूस करता हूँ
इसीलिए हृदय के द्वार खोलकर
वह मुझसे बातें करता है,
मैं उसे सदैव स्वीकार कर लेता हूँ
उसकी हर भूल अनदेखा करके
ऊपरी सपाट तल से
समुद्र की तह का पता नहीं लगता
हमें पनडुब्बी बनकर
उसकी तह तक डूबना पड़ता है
किसी को समझना
या न समझना
कभी अर्थहीन नहीं होता
या इतना आसान भी नहीं होता,
‘हवा के झोंके पर पत्ता उड़ गया‘
इस मामूली बात के पीछे
हवा ने समर्पित किया होता है
अपना समूचा अस्तित्व उस पत्ते को,
तब उस पत्ते को अर्थ प्राप्त होता है
हवा के साथ उड़ने का,
यह ध्रुवसत्य है कि
समझ के सभी द्वार
समर्पण के आंगन में खुलते हैं।
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मूल मराठी कविता : शशिकांत शिंदे
हिंदी अनुवाद : विजय नगरकर