दीर्घ सन्धि की कहानी

आगे-आगे थी विद्या
पीछे-पीछे था आलय
दोनों अपनी अपनी साइकिल चला रहे थे
पर आलय का अगड़ा आ
और विद्या का पिछला आ
कोई गुल खिला रहे थे
विद्या का आ बोला —
भैया आ
इतने दिनों बाद मिला है
आ मेरी साइकिल पर आ जा
दोनों इकट्ठे स्कूल जाएँगे
हमारे लिए
माँ विद्या
और पिता आलय
विद्यालय बन जाएँगे।

दोनों आ मिलकर हँसने लगे
विद्यालय के चर्चे चलने लगे।

एक दिन मही क़ी ई
और ईश की ई
दोनों मिलकर हँसने लगी — हि हि हि
बोली —
क्या हम भी
एक नाव में आ जाएँ
और एक ही सीट पर बैठ जाएँ
और हमारे माँ बापू महीश कहलाएँ

इससे पहले कि
मही और ईश बोलें
उत्सव दौड़ा-दौड़ा आया
उसने वधू का हाथ पकड़ लिया
और जोर से जकड़ लिया
उ और ऊ मिलकर बोले —
हम अबसे अलग नहीं होंगे
हमारे माता पिता वधूत्सव होंगे

भाषा मुस्कराई
बोली —
मैं तुम्हें कब से बुला रही थी
इक दूजे से मिला रही थी
तुम जो एक जैसे हो
एक ही मूल के हो
चाहे छोटे हो या बड़े हो
लघु हो या दीर्घ हो
पर एक ही खून के हो
जरा खुलकर मिला करो
केवल नमस्ते नमस्ते नहीं
आलिंगन किया करो
एकमेक हो जाया करो
अपनी अपनी ऐंठ न दिखाया करो
अपनी ईगो, अपना अहम
अपनी ऐंठ, अपना वहम
घर रखकर आया करो
हो चाहे लघु या दीर्घ
बस दीर्घ में समा जाया करो
आगे से दीर्घ सन्धि कहलाया करो।

*****

– डॉ.अशोक बत्रा

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