आत्ममंथन

देव पथ पर मनुज बनने को चला पशु
डर गया क्यों आज उन अभिवादनों से
जो देते थे सुखद अनुभूति पहले
क्यों असंभव हो रहा स्वीकार करना
आज निज वंदन
जो भरते थे हृदय में गर्व अति पहले।
हाय! यह कैसी विवशता
ग्रहण यदि करता है वह अभिवादनों को
झुकाकर निज-शीश, निज-दृग से
पा रहा वह,
हृदय जैसे बंध गया हो
स्वयं की निर्मित जंजीरों में
निरुत्तर-सा
आत्मा ज्यों फंस गयी हो
स्वयं के निर्मित भंवर में हो विवश
चंगुल में स्वयं की ही उलझ कर
विगत कर्मो के भयावह सघन जंगल में
सांस भय से घुट गयी है
पाप-पुण्यों से बनी प्रस्तर गुफाएं
कर रही हैं क़ैद सारी इंद्रियों को
वेदना के तंतु मन को बांधते हैं
सख्त देकर गांठ अन्तस के अंधेरे में
आह!
यह कैसी परीक्षा?
ग्रहण यदि करता है वह अभिनंदनों को
उठा कर निज शीश-निज दृग से।
देखता वह, है नहीं सम्मुख कोई भी
सब खड़े हैं शून्य में
दर्पण खुला उनके हृदय का
दीखता स्पष्ट नभ में!
देखकर प्रतिरुप अपना कांप वह जाता
कि उफ!
कितना घृणित, विकृत, भयावह
घृणा से जन्मे विरल गड्ढे
घाव बनकर फूटते हैं
बह रहा जिनसे निरंतर पीप मज्जा स्वेद।
देह पर है बह रहीं
द्वेष के दुर्गन्ध की रक्तिम शिराएँ।
निकल आईं हैं
घूमती फिरती असीमित नालियाँ
बह रहा जिनमें भयावह मत्सर कालिमा का।
डर गया वह
और जा बैठा दुबक कर देह की
अंध कालिख से भरी गहरी गुफा में
आत्ममंथन का नया संकल्प लेकर!

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© विनयशील चतुर्वेदी

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