1. मैंने बिकना अभी नहीं सीखा

जैसा बाज़ार का माहौल है,

वैसा रंग बदलना अभी नहीं सीखा,

दुःख में शामिल होकर,

अपना उल्लू सीधा करना अभी नहीं सीखा,

यारों का यार हूँ,

और नफ़रत से नफ़रत करना अभी नहीं सीखा,

किसी के बिखरे ख़्वाब को,

नफ़ा-नुक़सान देख संवारना अभी नहीं सीखा,

मुद्दे पर बात करता हूँ,

शक्ल देख समझौता करना अभी नहीं सीखा,

तारीफ़ करता और पाता हूँ,

पर ख़ुद पर इतराना अभी नहीं सीखा,

ख्वाहिशें हज़ार रखता हूँ,

पर चादर के बाहर पैर फैलाना अभी नहीं सीखा,

ऊँचाईओं पर हौसले से उड़ता हूँ,

पर जमीं पर उतरे बिना रहना अभी नहीं सीखा,

रिश्ते रोज़ बनता हूँ,

उन्हें भुनाना अभी नहीं सीखा,

साथ दिखने को साथ जो जाओ,

उठते-बैठते ऐसा करना अभी नहीं सीखा,

जो तुम पीछे रह जाओ,

छोड़कर कर आगे बढ़ना अभी नहीं सीखा,

चले जिनके साथ थे,

छोड़ उन्हें मंज़िल तक पहुँचना अभी नहीं सीखा,

हर बात पर बात रखकर,

दाल भात में मूसलचंद बनना अभी नहीं सीखा,

वक़्त के थपेड़ों की समझ है,

पर मजबूरी का फ़ायदा उठाना अभी नहीं सीखा,

ज़रूरत पर आज भी मुफ़्त में हाज़िर हूँ,

मैंने बिकना अभी नहीं सीखा।

***

2. सत्य-अहिंसा के उपदेश

सत्य-अहिंसा के वचनों को, कहाँ किसी ने नकारा है,

बुद्ध महावीर के वचनों को, कब किसी ने ललकारा है,

गीता के ज्ञान को लेकर, बहुतों ने जीवन संवारा है,

प्रेम ज्ञान की महत्ता पर, कितनों ने पुकारा है।

मुख से प्रचार करने वालों से, बस एक सवाल हमारा है,

ज्ञान वितरण से पहले, क्या खुद को निखारा है,

या नए चलन में मगन हो, बना उपदेश का पिटारा है,

खुद जो अपनाते नहीं, वो किसको गंवारा है।

इन विचारों का किसी ने, किया अगर सत्त्कार है,

उसके भाव-भंगिमा का, प्रभाव अपरम्पार है,

बंद मुख से ही,

सत्य-अहिंसा और प्रेम सातों समुंदर पार है,

वही प्रचारक है, वही प्रसारक है,

वाहक है, संदेहवाहक है…

***

3. दोस्ती के कई किस्से मशहूर

दोस्ती के कई किस्से मशहूर हुए हैं,

क्यूँकि, दोस्त पा के ही हम सब पूरे हुए हैं,

दोस्त बनने-बनाने के सफ़र को, हम सभी ने तय किए हैं,

विश्वास और प्रेम के ईंधन को डाल, सफ़र दूर तक किए हैं,

ख़ुशी हो, या हो ग़म, दोस्त हमेशा शरीक हुए हैं,

ज़िंदगी के हर चुनौती पर, दोस्त और क़रीब हुए हैं,

स्कूल का होम वर्क हो, या हो प्रेमिका से प्रेम का ईजहार,

हर बार दोस्त ही काम आए हैं,

परीक्षा का हो डर, या हो हॉस्टल में तबियत ख़राब,

हौसले हमेशा दोस्तों ने ही बढ़ाए हैं,

बड़ते कदम जब भी रुके, दोस्त खींच कर आगे लेकर आए हैं,

कायनात जब भी रूठी, दोस्त नए पाए हैं,

दोस्तों से बढ़कर भी, क्या कभी कोई अपने हुए हैं,

क्यूँकि,

बेटी माँ में, बेटा बाप में,

पत्नी पति में, तो महबूबा महबूब में,

दोस्त को ही ढूँढते रहे हैं,

दोस्त ना हों तो ज़िंदगी अधूरी है

अगर मिल जाएँ दोस्त, तो अधूरी ज़िंदगी भी पूरी है।

***

4. गाँधी

गाँधी के हुए उपयोग बहुत,

हुए विचारों पर शोध बहुत,

मोटी मोटी पुस्तकें छपी,

मन में, ना फिर भी बात छपी,

बड़ी बड़ी मूर्तियाँ बनी,

फिर भी, जो बननी थी, ना बात बनी,

क्या, अब कुछ नया होगा?

बनावट कम, और बदलाव होगा?

***

5. माँ हिंदी

निर्णय की निर्णायक से दूरी रही,

सत्ता की गलियों में,

राजनीति की धूम रही,

कूटनीति की चादर में,

दशकों से नेतृत्व खेल रही,

नाटो और यून में,

कभी आह तो कभी वाह कर रही,

और अहम मुद्दों में,

निर्णय की निर्णायक से दूरी रही,

वक़्त जब था हाथों में,

बस निंदा में नेतृत्व चूर रही,

इस बिगड़ी स्थिति में,

इंसान और इंसानियत पिस रही,

जब पीछे मूड़ कर देखूँ मैं,

निर्णय की निर्णायक से दूरी रही,

परिणाम देख जो सोंचूँ मैं,

निर्णय की निर्णायक से दूरी रही,

परिणामों की लम्बी सूची में,

कभी ईरान, कभी अफ़ग़ान,

कभी सीरिया, तो कभी उक्रेन रही।

*****

कुछ शेर

बेटियों को किसी खास दिन का मोहताज ना बनाओ,

छोड़ सको उन्हें खुद पर बस ऐसा संसार बनाओ।

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उजाले के तलाश में कमबख़्त ज़िंदगी जली जा रही है,

पर जल-जल के भी रोशनी कम ही पड़ जा रही है।

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पता चल गया कि तुम भी तीखी नज़र रखते हो,

चुप रहते हो मगर दुनिया-दारी पर पकड़ रखते हो।

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तकलीफ़ देते नहीं, हो जाती है,

ठोकर मारते नहीं, पर लग जाती है।

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कुछ इंशान होकर भी, इंशान नहीं हैं,

किसी की गिनती में, शामिल नहीं हैं,

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गिर गिर कर गिराना फ़ितरत है तेरी,

हर ठोकर के बाद उठना शोहरत है मेरी।

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झूट, छल, प्रपंच का सफल हो जाना आम है,

कलियुग में इन सब का ही मान है।

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-गौतम सागर

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