अन्जान
उम्र भर घर में रहा, अपनों से अन्जान रहा
शख़्स दीवाना था, दुनिया से परेशान रहा
कुछ ख़रीदार जो आते रहे, जाते भी रहे
ख़्वाहिशें बिकती गईं और वो दूकान रहा
मेरे बच्चों को हवा ले गयी तिनकों की तरह
रौनक़ें जिसमें थीं ख़ाली वही दालान रहा
वो सफ़र में था कहीं, लौट के ना आ पाया
इक नज़र देख ले माँ का यही अरमान रहा
लोग हैवान हुए, कैसे निभाते रिश्ते
ग़ैर का दर्द जो समझा, वही इन्सान रहा
जो मुहब्बत हुई उससे तो ये एहसास हुआ
वही ग़ज़लो का, वही नज़्मों का उन्वान रहा
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-रेखा राजवंशी