अपने अपने करम

गंगा तट पर एक स्वामी जी,
थे ध्यान मगन, प्रभु पूजा में ।
बेला थी, ब्रह्म महूरत की,
सुधबुध की न सूझ थी पूजा में ।१।

था शांत वहाँ का वातावरण,
उस से भी शांत, मुनि मन था ।
थे वो ध्यान मगन प्रभु भक्ति में,
उन्हें आसपास का ज्ञान न था ।२।

एकाएक न जाने, अचानक फिर,
तीव्र पीड़ा से भंग, मुनि ध्यान हुआ ।
लगा ऐसे कि शूल चुभा तन पर,
जब स्वामी को इसका, आभास हुआ ।३।

खुली आँख, तो सामने क्या देखा,
इक बिच्छू, रैंग रहा जाँघों पर ।
दिया झटका उसे जब स्वामी ने,
वो तो जा के गिरा, फिर पानी पर ।४।

लहरों के थपेड़े लगे उसको,
असहाय था, जान बचाने में ।
लगा बिच्छू तो अब बह जायेगा,
बड़ी दूरी थी, किनारे तक आने में ।५।

स्वामी ने जब ये दृश्य देखा,
बिच्छू बह रहा पानी में ।
जीने की आस को दिल में लिये,
वो तड़प रहा था पानी में ।६।

बिच्छू की ये पीड़ा जब देखी,
वो अपनी पीड़ा भूल गए ।
हाथों में उठा कर बिच्छू को,
पानी से वो बाहर ले आये ।७।

पानी से बाहर आते ही,
मारा ज़ोर से डंक हथेली पर ।
तीव्र पीड़ा से हाथ हिला ऐसा,
बिच्छू, गिर गया धरती पर ।८।

इक तीव्र लहर ने ज़ोरों से,
बिच्छू को घसीटा पानी में ।
वो जान बचाने की खातिर,
फिर तड़प रहा था पानी में ।९।

बिच्छू की इस हालत को देख,
स्वामी के दिल पर जो गुज़री ।
वो तो भागे उसे बचाने को,
उसे बाहर निकाल, सांस फिर ली ।१०।

बाहर आते ही बिच्छू ने,
कस के फिर डंक मारा, ऐसे ।
हिला हाथ, गिरा वो पानी में,
लगा अब तो गई, जान जैसे ।११।

स्वामी ने फिर आगे बढ़कर,
बिच्छू को हाथ में उठा लिया ।
पर बाहर आते ही उसने,
प्रशाद डंक का फिर से दिया ।१२।

अब बिच्छू फिर पानी में था,
और जान बचाने को तड़प रहा ।
स्वामी के बचाने के यत्नों का,
इक डंक से उसने मोल दिया ।१३।

यह लीला यूं ही चलती रही,
स्वामी बिच्छू को बचाते रहे ।
उधर बिच्छू ने डंकों की मार करी,
दोनों अपना करम निभाते रहे ।१४।

इक भक्त दूर से ये सब कुछ,
था देख रहा उत्सुक्ता से ।
उसे लगा कि स्वामी पागल है,
खा रहा डंक मूर्खता से ।१५।

जब रहा नहीं उस से जो गया,
वो तो स्वामी की ओर यूं ऐसे बढ़ा ।
और नम मस्तक हो कर के फिर,
उसने ये अपना, प्रश्न किया ।१६।

बिच्छू और आपकी क्रीड़ा ने,
मुझ को है ऐसा चकित किया ।
मुझे कुछ भी समझ नहीं आता,
हर बार क्यों आपने बचा लिया ।१७।

आपके एहसानों का बदला,
बिच्छू ने डंको से चुकता किया ।
तब भी फिर उसे बचाने में,
कोई रोष न आपने प्रकट किया |।१८।

सुनकर ये प्रश्न, बोले स्वामी,
सब कर्मों का है खेल प्रिये ।
मेरा करम है जीवन की रक्षा,
उसका करम मारना डंक प्रिये ।१९।

हम दोनों ने अपने करमों का,
स्वभाविक रूप पालन था किया ।
वो डंक मारता था मुझको,
मैं ने जीवन रक्षा का धर्म किया ।२०।

ऐसे बिच्छु जीवन में सदा,
कई रंग रूप में मिलते हैं ।
वो कितना भी डंक हमें मारें
हम अपने करम पर चलते हैं ।२१।

बिच्छू ने तो बिच्छू रहना है,
उसने डंक सभी को मारना है ।
पर हमको तो सपने में भी, कभी
इतने नीचे नहीं जाना है ।२२।

बिच्छुओं की संगत में भी तुम,
रहो कमल समान, और ये जानो ।
चाहे कैसा वो करें, तूफ़ान खड़ा,
उनकी हर अच्छाई को पहचानो ।२३।

*****

-विजय विक्रांत

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