मेरी शादी
इस कथा को ध्यान लगा के सुनो,
मैं प्रेम की गाथा सुनाता हूँ ।
कैसे शादी हो गई मेरी
कविता में पढ़ के सुनाता हूँ ।।
बेटा जब बने अभियन्ता,
पिताश्री ने यह आदेश दिया ।
हमें लड़की इक देखने जाना है,
तुम ने इस पे क्या विचार किया ।।
सुन कर वाणी तात की, हुआ यह अपना हाल ।
दिन में सपने आने लगे, टेढ़ी हो गई चाल ।।
पहुँचे हम देखने कन्या को,
मिले सास ससुर साली साले ।
मुझे देखा जब कसाई की नज़रों से,
हम ने हथियार वहीं डाले ।।
बोले तात श्री से ससुर श्री जी,
इन्हें एकांत में बातें करने दो ।
हम सिनेमा देखने चलते हैं,
इन्हें इक दूजे को समझने दो ।।
भीड़ को जाता देख कर, आई जान में जान ।
शुक्र है ऊपर वाले तेरा, अपना होगया कल्याण ।।
एकांत में जब दोनों के दिल,
धुक धुक धुक धुक धुक करने लगे ।
अब बात कहाँ से शुरु हम करें,
असमंजस में थे दोनों पड़े ।।
सुन्दरी बोली प्यारे प्रियतम,
घर अपना समझ आराम करो ।
मैं चाय बनाकर लाती हूँ,
इतने में तुम कुछ काम करो ।।
सुन कर वाणी प्रेम की, चले वीर बलवान ।
बोले मुझे क्या करना है, तुम जल्दी बताओ काम ।।
चाय से पहले तुम को प्रिय,
बरतन भाण्डे सब माँझने हैं ।
इस से पहले घर वाले आयें,
बिस्तर भी तुम को ढ़ाँकने हैं ।।
सुन कर इन वचनों को फिर,
हीरो मैदान में कूद पड़ा ।
बिस्तर ढ़ाँके, बरतन माँझे,
चाय की तलब से टूट पड़ा ।।
बरफ़ी चाय के मेल से, सजा चाँदी का थाल ।
प्यालियाँ ऐसे खनक उठी, जैसे तबले पर हो ताल ।।
पहले चाय से प्याला भरा,
फिर भैंस का दूध मिला डाला ।
चीने के बदले गलती से,
नमक डाल चम्मच को घुमा ड़ाला ।।
खाओ बरफ़ी चाय पियो प्रियतम,
और प्यार की कुछ बातें बोलो ।
यदि हाथ तुम्हारे गन्दे हैं,
उनको जाकर अन्दर धो लो ।।
मौका पाकर ऐसा फिर, भागे अंदर की ओर ।
हाथ धोये मुँह को धोया, क्यों मिलेगा अब चितचोर ।।
वापस आकर प्याली को जब,
होंठों से अपने चूम लिया ।
नमकीन चाय के ज़ायके से,
सिर अपना बस यूँ घूम गया ।।
अन्दर जाऊँ बाहर निकलूँ,
दुविधा में जान थी फंसी हुई ।
आशिक मजनूं की तरह से जब,
प्याली चाय की ख़त्म करी ।।
प्याली खाली हो गई और मिल गये चाँद चकोर ।
शादी पक्की हो गई, फिर मचा गली में शोर ।।
कुछ दिनों बाद सोचा हम ने,
कैनेडा चल के घर को बसाते हैं ।
घर बना लिया कैनेडा में पर,
बीते दिन यूँ याद आते हैं ।।
वहाँ बिना ताज के थे राजा,
यहाँ ताज तो है पर राज नहीं ।
यहाँ काम ही काम मेँ काम तमाम,
यह बात खुली कोई राज़ नहीं।
चाय बनाकर सातों दिन, हुये कभी न निराश ।
आदत ऐसी पड़ गई, जब शेरनी हो बैठी पास ।।
पहले अब्बू बने, फिर दब्बू बने,
चलें पीछे सदा हम रानी के ।
जहाँ बैठा बिठाया, हम बैठ गये,
यदि हुक्म हुआ, चलें पानी पे ।।
बस याद हैं केवल काम दो ये,
बरतन माँझो, बिस्तर ढ़ांको ।
यदि थोड़ी सी भी भूल हुई,
गैराज में रात को तुम काटो ।।
सुनी है व्याथा आपने, लगा के पूरा धयान ।
‘विजय’ का दिल हल्का हुआ, आपका भी हो कल्याण ।।
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-विजय विक्रांत
