कोए से दिन
फिर आए
रेशम के
कोए से दिन …
धूप की नदी
जैसे
पिघला पीला संगमरमर,
छायाएँ
लगी काँपने
डोंगियों सी ज़मीन पर,
पानी-सा मन –
सोने के साँपों के पोए से दिन…
हर सम्मोहन
टूटा
सूरज का जैसे अंकुश,
दहक रहा इंतेज़ार में
मन बेधी
देह का धनुष,
लौटेंगे कब ?
कामाक्षी वाणों के खोए से दिन…
लावे सा व्योम
थकी चिड़िया-सा हाँफें बादल,
घूरतीं अहेरी आँखें
भेद भरे चमके काजल
देह पर सजे
लहू-लहू छींटों के धोये से दिन…
मौसम ने चटकाये,
दरवाज़े-
खिड़की के काँच,
अमराई से आयीं पवनें
छाती में चिपकाये आँच,
ममता के क्षण
दूधमुँहें बच्चे के रोए से दिन…
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-राजीव श्रीवास्तव