दिव्या माथुर

समय तेजी से बदल रहा है, जाहिर है कि हमारे साहित्य में भी यह बदलाव, व्याकुलता और बेचैनी छलक रही है जो हिन्दी साहित्य को अपनी मौलिकता से समृध्द करती है लेकिन भारत में बहुत से लेखक, संपादक और आलोचक, बिना अधिक अध्यनन मनन किये, यह मान लेते है कि प्रवासी साहित्य नौस्टेलजिया का ही साहित्य है। अकसर ऐसा सुनने में आता है कि प्रवासी लेखक अपने खर्चे पर अपनी पुस्तकों को प्रकाशित, किसी जान-पहचान वाली संस्था के माध्यम से उसके लोकार्पण का आयोजन करवा लेते हैं और विदेश से निमंत्रण के आकर्षण को ध्यान में रखते हुए नामचीन लेखक उनके लोकार्पण कार्यक्रम में सम्मिलित भी हो जाया करते हैं। इस सारे फसाद का फायदा क्या है, किसे और क्यों है?

प्रवासी लेखकों के हिन्दी में लिखने से जुड़े सुख और दुःख दोनों हैं और चुनौतियाँ अनंत, उनके प्रति बहुत कम है जिन्हें सहानुभूति होती है। सब यह मान कर चलते हैं कि यहाँ पैसा पेड़ों पर उगता है; सभी करोड़पति होते हैं और सबका जीवन बड़ा आरामदायक है जबकि सच्चाई इससे नितांत विपरीत है। कम से कम हमारी पीढ़ी के लोगों ने विदेश में बसने के बाद कड़ी मेहनत की है, जिसके फलस्वरूप, हमारी अगली पीढ़ी सफलता की पायदान पर आगे और आगे बढ़ रही है। इसी सफलता के कारण ही शायद उनका हिंदी से लगाव कम हो रहा है किंतु इस पर विमर्श फिर कभी।

लेखन में ‘नौसटैलजिया’ के विषय पर बातचीत की शुरुआत की पिछले वर्ष विश्व पुस्तक मेले-दिल्ली में मेरे उपन्यास ‘तिलिस्म’ के लोकार्पण के दौरान शोधार्थी सुअम्बदा ने; जो मेरे लौटने पर भी जारी है; वह इसी विषय को लेकर शोध भी कर रही है। ‘नौसटैलजिया’ की जड़ है हिंदी बुक सेंटर से 1999 में प्रकाशित मेरा पहला कहानी संग्रह, आक्रोश, जिसकी अधिकतर कहानियाँ 70-75 के दशक में प्रकाशित हो चुकी थीं। दो कहानियाँ नवभारत टाइम्स के रविवारिय संस्करण में और एक कादंबनी में बहुत चर्चित हुईं थीं। कुछ नई कहानियाँ भी शामिल थीं जो मैंने डैनमार्क और लंदन पहुँच कर लिखीं थीं। इस संग्रह की भूमिका कमलेश्वर जी ने लिखी थी, डॉ रूपर्ट स्नैल ने इसका लंदन लोकार्पण किया था; दोनों ने ‘नौसटैलजिया’ को रेखांकित नहीं किया था। इन्हीं पुरानी कहानियों पर आधारित थीं उस समय हुई दो एक समीक्षाएं, जिनमें एक प्रवासी लेखक ने पहली बार ‘नौसटैलजिया’ को लेकर मेरी कहानियों को बर्खास्त करना चाहा था। किंतु ‘नौसटैलजिया’ पर सुई जो अटकी तो उसे हिलाने में वर्षों लग गए; कुछ बिना कुछ नया पढ़े, उन्हीं टिप्पणियों को दोहराते रहे। और मैं, मैं व्यस्त रही अपने पेशे इम्प्रेसारियो की भूमिका में, इन्हीं लेखकों के प्रचार प्रसार में, है न व्यंगोक्ति! इस भड़ास के बहाने कुछ गंभीर मुद्दों पर चर्चा हो जाए तो क्या बुरा है।

नए पुराने अनुभवों का जोड़तोड़ ही तो जीवन है, आप प्रारब्ध में विश्वास करें या न करें, आपके निर्णय इन्हीं अनुभवों पर आधारित होते हैं। कितनी भी तरक्की कर लें, विश्व में कहीं भी पहुँच जाएं, आपके भविष्य के साथ-साथ आपका अतीत साथ जाता है, चरम स्थितियों में चाहे कुछ पल के लिए आप भूल जाएं पर बिस्तर पर बैठते ही आप अपने घर या घर वालों के मध्य पहुँच जाते हैं। अनुभूति के गहन हो जाने पर आप विषाद से भी घिर सकते हैं, ऐसे में आप किसी करीबी दोस्त या घर के किसी सदस्य से बात करना चाहते हैं, अभिव्यक्त का माध्यम न मिलने पर आप इस गहन अनुभूति को सकारात्मक अथवा नकारात्मक किस रूप में लेते हैं, यह आपके व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। कुछ विषाद से घिर जाते हैं, ड्रग्स लेने लगते हैं; कुछ संगीत, कला अथवा लेखन के जरिए इसे अभिव्यक्त करते हैं; मेरे विचार में बहुत कुछ निर्भर करता है व्यक्ति की पृष्ठभूमि पर। 

प्रवास में बसने के पश्चात लेखक एक लंबे समय तक अपनी मातृभूमि से अपने को काट नहीं पाता क्योंकि उसकी जड़े तो वहीं हैं। उसके लेखन में बार-बार वहाँ बिताए जीवन और अनुभवों का जिक्र होता है, जो स्वाभाविक है। नए वातावरण में पैर जमा लेने के बाद भी वह एक लंबे समय तक नए पुराने की तुलना में लगा रहता है। ‘नौसटैलजिया’ को लेकर विदेशी लेखकों की तुलना में प्रवासी भारतीय लेखन की ही अकसर आलोचना की जाती है। मैंने बहुत से तुर्की, चैक और रूसी लेखकों को पढ़ा है, जिसमें बार-बार वे अपने देश के इतिहास को खखोलते दिखाई देते हैं, यदि मैं उदाहरण देने बैठूँ तो एक पुस्तक तैयार हो जाएगी। खैर, सभी लेखक तो पत्रकार नहीं होते, प्रवासी भारतीय लेखकों से आशा की जाती है कि नए देश में पाँव रखते ही वे वहाँ के विषय में लिखना शुरू कर दें, अपनी सोच बदलें, लिखते समय वे बार-बार भारत न लौटें, विदेशियों के जीवन पर लिखें, वगैरह वगैरह, जबकि ‘स्टिफ अप्पर लिप’ के लिए मशहूर, अधिकतर विदेशी आपको अपने घर में झाँकने भी नहीं देते। रईसों की बात अलग है, वे उनकी बैठकों तक बेशक पहुँच जाएं पर उनके अंदरूनी जीवन से वे भी अपरिचित ही रहते हैं, अपवाद अल्प हैं। हमारी अगली पीढ़ी के बच्चे और उनके बच्चे अब, चाहें भाषा और हाव भाव में विदेशी हो जाएं, पर विदेशियों द्वारा उन्हें अपना लेना एक अलग बात है; रेसिज्म अब परदों के भीतर रहता है।

जैसा कि मैं अकसर कहती हूँ कि विदेश में रोप दिए जाने पर पौधा विदेशी नहीं हो जाता; हाँ, एक नए वातारण में पनपने की वजह से, उसमें अतिरिक्त सहिष्णुता और क्षमता जैसे अनन्य खूबियां आ जाती हैं; उनका दृष्टिकोण व्यक्तिपरक नहीं रह जाता; तथ्यात्मक डेटा को संदर्भित करता है जो व्यक्तिगत मान्यताओं या पूर्वाग्रहों से प्रभावित नहीं होता, न ही होना चाहिए। इसीलिए, प्रवासी हिंदी-साहित्यकार, विशेषतः इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं कि उनकी रचनाओं में विभिन्न देशों के इतिहास, भूगोल, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियाँ परिलक्षित होती हैं, विभिन्न शैलियों का आदान प्रदान होता है, हिंदी साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय विकास भी होता है।

विदेश में बसी भारतीय लेखिकाओं की कहानियों पर आधारित मेरे द्वारा सम्पादित तीन कहानी संग्रह, ‘औडिसी’, ‘आशा’ और ‘देसी गर्ल्स’ के प्रकाशन के दौरान मेरा केवल एक ही उद्देश्य था कि भारत के बाहर विदेश में रहने वाली तमाम भारतीय स्त्रियों के उत्कृष्ट लेखन के बारे में तमाम लोग जान सकें। इसमें कनाडा, डेनमार्क, नार्वे, इंग्लैंड, अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात आदि देशों में जाकर बसने वाली लेखिकाओं की कहानियाँ संकलित हैं; जिनकी पृष्ठभूमि अलग है और जिनका जीवन विदेश में ही विकसित हुआ। ये सभी लेखिकाएं उच्च शिक्षित और अपने काम के क्षेत्र में अनोखी उपलब्धियों को प्राप्त करके भी अपने रहन-सहन में अपनी परम्पराओं व मर्यादायों को निभाते हुए अपनी ‘देसी’ छवि का आभास देती हैं। इस संग्रह में मैंने पुरुस्कृत व मंजे हुए रचनाकारों के योगदान के अलावा कुछ नये उदित रचनाकारों की कहानियों को भी शामिल किया है। इनकी कहानियों का अंत एक दंश सा दे जाता है और यह दंश अकसर नौसटैलजिया की वजह से ही उत्पन्न होता है।

औरतों को अक्सर ही पुरुषों की हिंसा का शिकार होते हुए देखा गया है। आजकल औरतें कितने ही क्षेत्रों में बराबरी का काम कर रही हैं फिर भी उनके साथ पक्षपात व घटिया व्यवहार किया जाता है। वह बराबर के अधिकारों के लिए पुरुषों से भी अधिक मेहनत करती हैं पर काम के एवज में उन्हें पुरुषों से कम वेतन मिलता है। वह जहाँ भी काम करती हैं उन्हें लगता है जैसे पुरुष उस क्षेत्र पर केवल अपना ही अधिकार चाहते हों; जैसे उस काम के लिए वही बने हैं। इसके अलावा कई बार बिषम परिस्थितियों से गुजरती हुई औरत को समाज से व अपनों से भी सहानुभूति की बजाय तिरस्कार व अपमान सहना पड़ता है। हम सभी जानते हैं कि जब कहीं कोई आंदोलन हुआ है तो उसमें उन्हीं को मुश्किलों का भी सामना करना पड़ा है; उनका अधिकारवाद भी लोगों के लिए एक समस्या बना हुआ है किन्तु आज भी वे अपने अनुभवों से शिक्षा लेती है; जिनके लिए नौसटैलजिया प्रेरणा का एक बड़ा स्त्रोत है।        

नौसटैलजिया को लांगिंग (तृष्णा) से कहीं ज्यादा बिलांगिंग (सम्बद्वता) के रूप में देखना चाहिए। भारत समय और स्थान को अन्तः परिवर्तनीय बना देता है। भारत लेखक को कोई भावुकता में भर देने वाला संदर्भ नहीं है। भारत उसे एक ऐसी सामर्थ्य देता लगता है जिससे ‘बियान्ड रिकॉल’ माने जा रहे समय के सामने प्रवासी संवेदना एक आत्मविश्वास के साथ खड़ी हो सकती है। कई बार यह सामर्थ्य भारत के सद्गुणों पर ही मुनहसिर नहीं होती, भारत की खराबियों से भी पैदा होती है।

अंत में जैसा कि वर्जीनिया वुल्फ ने लिखा था, ‘एक महिला होने के नाते मेरा कोई देश नहीं है। एक महिला होने के नाते मुझे कोई देश नहीं चाहिए। एक महिला के तौर पर मेरा देश पूरी दुनिया है।’ मैं जहां भी रहूँ, वहाँ के अनुभव ही तो मैं हूँ, आप किसी भी देश में हों, कहीं भी बस जाएं, अनुभव कमोबेश यकसां रहते हैं और इसीलिए ‘नौसटैलजिया’ से पीछा नहीं छूटता, लौट फिर कर आप अपने अनुभवों को तौलते रहते हैं। और फिर सभी लेखकों से आशा करना कि वे ‘नौसटैलजिया’ में न जियें, आज जो हो रहा है, उसे कलमद्ध करें, सब की अपनी सीमाएं होती हैं, अपना नज़रिया होता है, कोविड के बाद आज तक जीवन ‘नॉर्मल’ नहीं हुआ है और न ही कभी होगा, तो क्या लेखक कोविड के विषय में ही लिखता रहे, जब तक कि एक नई महामारी न या घेरे, और जब ऐसा हो जाएगा तो लोग उसे पहले वाले कोविड से तुलना नहीं करेंगे, या भविष्य में फैलने वाले रोगों का अंदाजा नहीं लगाएंगे। यह भी तो ‘नौसटैलजिया’ ही हुआ ना।

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