कील

मैं यदि जूता होता
तो होता तुम्हारे पाँव में
परंतु मैं जूता नहीं
कील हूँ
शुक्र मनाओ
मैं नहीं हूँ
उस जूते में
जो है तुम्हारे पाँव में!

*****

– निखिल कौशिक

One thought on “कील – (कविता)”
  1. बहुत बधाई निखिल जी एवं अजय त्रिपाठी जी को ।
    दोनों ही मेरे पसंदीदा कवि हैं

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