है याद मुझे

है याद मुझे वो गलियारा
वो इक आँगन, वो चौबारा
वो चंचल बहती शोख़ नदी
मादक समीर, वो वन प्यारा

वहाँ ऊँचे थे कुछ पेड़ बहुत
जो नभ को छिपा ही लेते थे
उनके पत्तों को बींध-बींध
और फिर धरती पर लुक-छुप कर
छाओँ और धूप के कुछ टुकड़े
आपस में खेला करते थे

उस आँगन में ऐ दादी
तुम मुझको ख़ूब खिलाती थीं
अच्छाई का, सच्चाई का
मुझको नित पाठ पढ़ाती थीं
सीधे-सादे उन क़िस्सों में
तुम सीख बड़ी दे जाती थीं
हर इंसाँ को इंसाँ समझो
ये बात रोज़ समझाती थीं

वहाँ सहज सरल मैं जीता था
वहाँ मेरा बचपन बीता था
वहाँ भोलेपन की माटी में
सपनों का अंकुर फूटा था
पेड़ों पर सावन के झूले
भूलें तो कैसे हम भूलें
हर छोटी बात पे हँसता था
जीवन झिलमिल कैसे भूलें

इक दिन वो भी आ पहुँचा
जब मुझको दूर ही जाना था
विद्या अर्जित करके अपना
जीवन ये सफल बनाना था
उस कुम्हलाए से चेहरे पर
रेखाएँ कुछ थर्राई थीं
प्यार भरी वो आँखें फिर
झिलमिल झिलमिल हो आयीं थीं

मैं छोड़ चला फिर साथ तेरा
और सफ़र बना जीवन सारा
जाने किस मोड़ पे छूट गया
वो इक आँगन वो चौबारा
कब बचपन के वो खेल खिलौने
छूट गए कुछ याद नहीं
कब दूर चला आया तुमसे
क्या बोलूँ मैं कुछ याद नहीं

वो शहर जहाँ में जा पहुँचा
इक जगह अजूबी थी यारों
चालाकी, झूठ का राज वहाँ
सच्चाई कुंठित थी यारों
बचपन की शिक्षा ने मुझ को
पल-पल पर दिया सहारा था
अब इक कमरे के भीतर ही
आँगन भी था, चौबारा था

कुछ पा लेने के बाद मुझे
अब याद गाँव ही आया है
बचपन की यादों ने मुझ को
फिर वापस यहाँ बुलाया है

आया हूँ तो सब बदल गया
पनघट, चक्की, झूले, मंदिर
कोई मुझ को ना बता सका
दादी को कहाँ सुलाया है
वो प्रेम मूर्ति कहाँ गयी
जीवन की पूँजी कहाँ गयी
शिक्षा की देवी कहाँ गयी
वो एक कहानी कहाँ गयी
है कौन मुझे जो बतलाए
मैं जीवन में यूँ क्यों हारा
क्यों छूट गया था प्रभु मेरे
वो इक आँगन वो चौबारा
अपने आँगन से प्यार करो
अपने गलियारे में खेलो
अपनी नदिया के तीर चलो
तुम चंचल लहरों से खेलो

जो वक़्त गुज़र अब जाएगा
कब आएगा फिर दोबारा
तुम तरसोगे फिर आँगन को
ढूँढोगे अपना गलियारा
है याद मुझे वो गलियारा
वो इक आँगन वो चौबारा
वो चंचल बहती शोख़ नदी
मादक समीर वो वन प्यारा

*****

– अजय त्रिपाठी

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