सोने वाले जाग ज़रा

जंगल जंगल आग लगी है
बस्ती बस्ती उठे धुआँ
मौसम तेवर बदल रहा है
सोने वाले जाग ज़रा

कब से नोच रहा क़ुदरत को
कबसे धरती रौंदे तू
आने वालों को क्या दुनिया
देगा, ये ना सोचे तू
बहुत हो गया अरे मुसाफ़िर
अब तो होश सम्भाल ज़रा
मौसम तेवर बदल रहा है
सोने वाले जाग ज़रा

ज़हर भरा है कायनात में
जिस में साँसें लेता तू
पेड़ भी हैं अभिशाप ये देते
जिनको काटे देता तू
आने वाली नस्लों पर तो
कर दे तू एहसान ज़रा
मौसम तेवर बदल रहा है
सोने वाले जाग ज़रा

फ़सल ना उगती फूल ना खिलते
ना बसंत ना बारिश है
सैलाबों की भीड़ लगी है
कैसा आलम तारी है
समय के रहते चेतेगा तो
होगा ये एहसान तेरा
मौसम तेवर बदल रहा है
सोने वाले जाग ज़रा

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– अजय त्रिपाठी

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