विधवा नदी

शहर के चौखट पर
बहती थी
वो नदी
जिसमें गिर कर
सूरज बुझता
और चाँद
मुँह धो के संवर जाता
खुश्क हवाएं
छू कर इसको
नम हो जाती
संध्या के अरुण श्रृंगार से
नदी की लहरें
सुहागन बन भाग्य पर इतरातीं
पानी के इस दर्पण में
प्रतिबिम्बित होते
शहर के घर
और नदी जुगनुओं से भर जातीं l
इसी शहर ने,
खीची नदी तक जलती रेखाएं
गन्दगी घरों से निकल
तट पर उछलने लगी
नदी के सीने में
गाड़ दी गईं बल्लियाँ
और बस गईं
कुछ बेनाम बस्तियाँ
सूरज
बिना मिले चला जाता
चाँद भी अब
नदी में नहीं उतरता
जुगनुओं ने
इधर से गुजरना छोड़ दिया
धीरे-धीरे छीजते गये किनारे
तब बहुत रोई थी नदी
कल कल करती
उसकी समृद्ध आवाज़
बंजर हो गई
बहती है अब भी
एक कृशकाय विधवा नदी
जो स्वयं प्यास बन चुकी

*****

– रचना श्रीवास्तव

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