
वो चाचा निकल गए काये
– शिखा वार्ष्णेय
शाम के चार बजे रहे थे। धूप के साथ पंछी भी लौटने लगे थे। आँगन में पड़े फोल्डिंग पलंग पर राजवंती, अपने कटोरे, बीज लेकर बैठी ही थी कि शिवी और उसके मित्रों ने आकर उसे घेर लिया और अम्मा कहानी… अम्मा कहानी … की रट लगाने लगे। यह रोज का ही काम था। जब से मोहल्ले वाले जानते थे राजवंती अपने चार कमरों के पुराने से मकान में अकेली रहती थी। बुढापे में भी अपना और घर का ज्यादातर काम खुद ही करती थी। कुछ पुराने मोहल्ले वाले बताते थे कि वो बाल बिधवा थी और ससुराल वालों के मरने के बाद अब इस मकान की मालकिन थी। इसी में दो कमरे एक जोड़े ने किराय पर लिए थे और उन्ही की सात-आठ साल की बेटी शिवी रोज स्कूल से आते ही राजवंती के पीछे कहानी सुनने के लिए पड़ जाती। राजवंती किसी तरह उसे टालती रहती।
“अभी खाना बना लें लल्ली फिर …
अभी नेक जे काम कर लें फिर सुनायेंगे…
अच्छा अभी तो धूप भोत है नेक संझा हो जान दो बिटिया, फिर आराम से बैठ के सुनायेंगे।”
और फिर ज़रा शाम होते ही शिवी और आस पड़ोस की उसकी पलटन राजवंती अम्मा को घेर लेती।
“अरे राम! ज़रा सांस तो लेन दो कमबख्तों हर बखत कहानी… कहानी”
झूठी खीज दिखाती अम्मा बोलीं।
“और कौन सी कहानी सुनोगे? सबरी तो सुन चुके हो” अम्मा ने फिर टालना चाहा।
“अम्मा वो एक राजा और तीन रानियों वाली सुनाओ” टिल्लू तपाक से बोला।
“अरे न, कै बार तो सुन चुके वो” अम्मा कुनमुनाई।
“तो वो मोहन भैया वाली सुना दो”, शिवी बोली।
“अच्छा अम्मा वो सुनाओ, वो चाचा निकल गए काये” सारे बच्चे एक साथ अम्मा की ही बोली की नक़ल करने की कोशिश करते हुए चिल्लाये।
उन्हें पता था, जब अम्मा ज्यादा न नुकुर करे तो कौन सा पासा फेंकना है। यह एक कहानी के लिए अम्मा कभी मना नहीं करती और ऐसा ही हुआ।
“अच्छा तो सुनो” कहते हुए अम्मा ने अपनी धोती सिर पर ठीक से टिकाई। गोद में गड्ढा सा बनाते हुए खरबूजों के बीज का कटोरा फंसाया और चिमटी से उन्हें नुकाते हुए, ख्यालों में खोई हुई सी अम्मा कहानी कहने लगी।
“बा दिना वो चाची बड़ी खुस ही बालको, नए कपड़ा, नए जेवर पहना के तैयार करो सबने बाये। चौदह बरस की तो रही होगी वो। पहली बार बाए सब इतनो मान दे रये, पूछ रहे सो खूब भा रहो बाये। बा की बारात आन वारी ही। सब जनि कह रहे दूल्ह बहुत अच्छो लगत है। एकदम जैसे सलोनी सी मूरत। भाग खुल गए छोरी के। सो मन में फूटते लड्डू लेके चाची, चाचा के संग ब्याह के आ गई। ससुराल में सबरे दिन फिर रस्में होवत रहीं, हँसी- ठठ्ठा होत रहा और चाची, चाचा की बगल में लाल बनारसी साड़ी कौ लंबो घूँघट काढ़े सब करत रही। कई बार नेक गर्दन घुमा के तनिक अपने सलोने दूल्हे की छवि देखने की कोसिस करती पर फिर लाज से सुकुड जाती और कछु न देख पाती। सांझ ढली तो चाची कु बा के कमरा में भेज दियो। इत्ते दिनन की, फिर लम्बी यात्रा की थकान और रस्मों के काम, नन्ही सी चाची की आँख लग गई। खुली तब, जब हबड़-तबड सा शोर बा के कानन में पड़ौ।
“ए लल्ला निकल गो।
“अरे नेक देखियों कहाँ निकल गए चाचा।”
सब बच्चे एकदम शांत होकर सुन रहे थे। अम्मा कभी कभी बच्चों की खड़ीं बोली यानि साफ़ हिन्दी में बोलने की कोशिश करती फिर से अपनी ब्रज भाषा पर आ जाती।
“अरे मैंने कितनी बार मने करी, लल्ला को मन न है सादी को, बाको मन कहीं और रमो रहे। पर मेरी सुने कौन है। अब निकल गयो न। अब करत रहो भजन सब जनि। लड़का भी गयो हाथ से” चाचा की अम्मा अलग खटिया पर पड़ी पड़ी बुदबुदा रही थीं। “मैंने तो समझी के दुल्हन आ जावेगी तो मन बदल जाएगो लल्ला को, गिरस्ती की जिम्मेदारी पड़ेगी तो घर में रम जाएगो। जाने कौन ने जादू टोना कर दियो है। सुध बुध ही खो बैठो है अपनी” चाचा की माँ अलग पल्लू मुँह में दबाये सुबकी।
“सबरे घर में हडकंप मचान लगो। चाची दरवाजे के पीछे दुबकी सब देख सुन रही। अब तक बा ने अपने दुल्हे की सकल ऊ न देखि ही। और अब लग रहौ हो कि जैसे वो घर छोड़ के कहीं चलौ गयो।”
पर अम्मा चाचा कहाँ चले गए थे और क्यों? शिवी ने बीच में अम्मा को टोका।
“लल्ली, लोग बतावे करें कि काई साधू वाधू ने फुसला लयो चाचा कू सो वो साधू ही बनवे निकल गए घर से। बहुतेरी ढूंढ मची। पुलिस में भी खबर करी। उनके पिताजी हरिद्वार तक देख के आये पर कहीं न मिले। चाची बिचारी के तो आँसू भी न निकले बस अपने कू कोसत रहती कि काश रात को सोई न होती तो कम से कम एक बार मिल तो लेती अपने दुल्हा से। फिर का मालूम वो न जाते या वो ही उन्हें न जावन देती। काई तरह से रोक लेती। या कम से कम उन्हें ढूँढवे निकलती तो पहचान तो लेती।
“अम्मा फिर? चाचा आये लौट के ?” टिल्लू हैरानी से आँखें फैला कर बोला।
“कच्च्च …” अम्मा ने मुँह बिदकाया, “चाची कई महीना तक रोज दरवाजे से देखती। रात बिरात कभी कोई साधू दिख जातो तो दौड़ी जाती पर वो न आये। ज़रा सी उम्र में चाची बिधवा सो जीवन बितान लगी। सबरे दिन घर के काम में खटती, साज सिंगार तो दूर, रंगीन धोती तक न पहनी जीवन भर। यों ही रूखो सूखो जो हाथ पड़ जातो, खाती और घर के एक कोना में पड़ी रहती। यों घरवाले बहुत प्रेम से रखते पर बाकी सकल देख के उन्हें भी अपने बेटा के जाने को दुःख याद आ जातो और आने जाने वाले भी कभी दया दिखावे के बहाने रोना – धोना करते कभी कोई ताने मारन लागते। “दुल्हन के पैर ही मनहूस पड़े। अच्छो खासो लड़का साधू बन गयो। जो नई नवेली दुल्हन आदमी को न बाँध सके ऐसी दुल्हन काये काम की।” गाहे बगाहे ऐसी बातन से तंग आके चाची ने लोगन के सामने तक पड़नो बंद कर दियो। काई से न मिलती, न कहीं आती जाती। ऐसे ही जिन्दगी काटत रही।
“पर हाँ। फिर पाँच साल बाद, एक शाम एक साधू उनके दरवाजे पे आयो। भिक्षा मांगी। चाची ने जैसे ही बा के हाथ पे रुपया धरो हैरान रह गई। वोई हाथ थे, जिन्हें कन्या दान के वखत चाची ने तनिक देखो हो, महसूस करो हो। पर बा के मौह से बोल न फूटो। साधू ने बा के सिर पर हाथ धरो और खुश रहवे कू कही। जब तक चाची ने माँ कू आवाज दई …घरवालन कू बतावे भागी।”अम्मा … अम्मा … वो आ गए।” तब तक वो साधू ये जा और वो जा … बहुत भागे सब इधर उधर पर फिर वो न मिलो। सबने कहा “अरे कोई और होगा, वो आता तो कम से कम अपनी माँ से तो मिलता। फिर आया ही था तो जाता ही क्यों। ये पहचानती ही कौन सा है उसे?” पर चाची कू पक्को यकीन हो कि वो चाचा ही थे और बस बाई मिलवे आये थे।”
और राजवंती अम्मा फिर कहीं खो सी गई। बच्चों के चेहरे लटक गए। “अम्मा फिर चाची का क्या हुआ?” बुझे स्वर में शिवी बोली।
“अरे होगो का। अब तो बुढ़िया हो गई होगी, मेरी ही तरह कहीं खटिया तोड़ रही होगी और क्या। चलो जाओ अब अपने अपने घर।” राजवंती अम्मा ने अपना कटोरा, बीज समेटे और थके से क़दमों से घर के अन्दर चली गई।
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