वारंगल के ध्वंसावशेषों में

– डॉ वरुण कुमार

“यहाँ कैसे आए, कोई काम था?”

“नहीं, मैं तो यहाँ घूमने आया हूँ।”

“यहाँ!” उनकी आँखों में हैरानी थी। “यहाँ क्या है?”

मुझे काकतीय राजाओं के इतिहास के अवशेषों को देखने की उत्सुकता वारंगल खींच लाई थी लेकिन यह देखकर झटका-सा लगा कि अपने अतीत के प्रति यह शहर स्वयं कितना उदासीन है। काकतीय विजयनगर साम्राज्य से पूर्व एक अत्यंत समृद्ध और प्रतापी राजवंश था और कभी यह शहर उस राजवंश की राजधानी था। प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा इसी के निकटवर्ती गोलकुंडा के खदानों से निकलकर काकतीय राजाओं के स्वामित्व में आया था।

चलते समय मुझे भी वारंगल के बारे में कुछ खास पता नहीं था। करीब अठारह साल पहले नेशनल ज्योग्राफिक चैनल में इसपर देखे गए एक कार्यक्रम से इसकी हल्की सी स्मृति थी और लगता था यह एक महत्वपूर्ण शहर है, यहाँ जाना चाहिए। काकतीय राजवंश और उसकी समृद्धि, कलात्मक ऊँचाई, सैन्य कुशलता के बारे में उसी कार्यक्रम में सुना था। तब मुझे आश्चर्य हुआ था कि मेरे स्नातक के इतिहास के पाठ्यक्रम इसका कोई उल्लेख नहीं था, जबकि यह मध्यकालीन भारत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। ‌वारंगल ही क्यों, हम्पी का भी मुझे ज्ञान नहीं था, जिसके खण्डहरों में कुछ वर्ष पूर्व घूमते हुए मेरी आँखें भर आई थीं।

वारंगल आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) में है। इसे बारहवीं सदी में काकतीय राजा प्रोल राजा ने बसाया। तेरहवीं सदी के आरंभ में काकतीयों के सबसे शक्तिशाली राजा गणपति देव ने अपनी राजधानी हनमकोण्डा से ‘ओरुगल्लू’ शहर स्थानांतरित की। ‘ओरुगल्लू’ शब्द कालांतर में ‘वारंगल’ बन गया। यहाँ के मंदिर अपनी बेजोड़ कला-शिल्प के लिए जाने जाते थे। जब मैं अपने पर्यटन के पहले पड़ाव रामप्पा मंदिर को देखा तो मंदिर छोटा होने के बावजूद उसकी सुंदरता और कलात्मक ऊंँचाई को देखकर दांँतों तले उंगलियांँ दबानी पड़ीं।

यहांँ का किला शिल्प, स्थापत्य और सैन्य सुरक्षा का एक उत्कृष्ट नमूना था। जब मैं इस किले को देखने पहुँचा जो ‘किला वारंगल’ के नाम से प्रसिद्ध है, तो फाटक से अंदर जाने पर सिर्फ खंडहर दिखाई पड़ा। टुकड़े ही टुकड़े – जमीन पर बिखरे – यहाँ, वहांँ, – औंधे, टेढ़े, सीधे। मूर्तियाँ, खंभे, दीवारों, मंडपों आदि के टुकड़े। किला और मंदिर कुछ नहीं बचा था। बस एक तोरण द्वार साबुत खड़ा रह गया था, जिसे तेलंगाना सरकार ने अपने राज्य प्रतीक के रूप में अपना लिया है। इतना तो दूर से ही दिख रहा था, टिकट में पैसे लगाने की क्या जरूरत थी।

किले के इतिहास को भारतीय पर्यटन विभाग, इन्क्रेडिबल इंडिया और तेलंगाना सरकार की वेबसाइटों पर जाकर ढूँढा तो सर्वत्र काकतीय राजाओं के शौर्य-पराक्रम, उनके उच्च कोटि के शासन, उनकी अद्वितीय वास्तुकला, विभिन्न धर्म-संस्कृतियों को प्रश्रय देने की उदारता, किले की भव्यता, इसकी अद्वितीय कलात्मक श्रेष्ठता का गुणगान मिला। लेकिन कहीं इसकी चर्चा नहीं थी कि बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में बना मात्र एक हजार पुराना किला इस तरह टूटा कैसे। आशंका हुई कि कहीं यह भी हम्पी की तरह मुस्लिम शासकों की क्रूरता का शिकार तो नहीं हुआ? मैंने संभावनावश ही गूगल पर जाकर प्रश्न टाइप किया – “How was the Warangal Fort destroyed?”

उत्तर में जो मिला उसने मुझे उद्वेलित कर दिया। इस किले पर अलाउद्दीन खिलजी और मोहम्मद बिन तुगलक के कई हमले हुए – १३०३ और १३२३ ई० के बीच। १३१० ई० में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने चढ़ाई की।‌ उसने एक लाख की सेना के साथ किले के चारों तरफ घेरा डाल दिया। प्रतापारूद्र द्वितीय ने बड़ी बहादुरी से छह महीने तक अंदर से ही उनका मुकाबला किया। लेकिन मलिक काफूर की सेना किले से बाहर पड़ोसी शहरों-गाँवों में लोगों को गाजर-मूली की तरह काट रही थी। अंतत उन्होंने संधि कर ली। संधि में मलिक काफूर ने बेशुमार दौलत हासिल की जिसमें प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भी था। उसने यह भी शर्त रखी कि प्रतिदिन राजा दिल्ली की ओर मुंँह करके अपना सर झुकाएगा और अपनी अधीनता का प्रदर्शन करेगा।

पुनः १३१८ ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी के बेटे  खुशरू खान ने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन मुबारक शाह को इस किले पर हमला करने भेजा।‌ इस बार उसने किले को घेरकर बाहर से मिट्टी भरकर ऊंँचा करते-करते हुए अंततः किले की दीवार पर पहुंँचकर अंदर प्रवेश किया। दीवार के अंदर भी पानी भरा हुआ खंदक था, जिसे उसके सैनिकों ने तैरकर पार कर लिया। प्रताप रूद्र द्वितीय को फिर बेहिसाब दौलत गँवानी पड़ी।‌ इस बार यह दौलत एक बार के लिए नहीं हर बार वार्षिक नज़राने के रूप में तय कर दी गई।

इसके बाद दिल्ली में सत्ता परिवर्तन हुआ और खिलजी को हटाकर मोहम्मद गियासुद्दीन तुगलक ने गद्दी संभाली। असह्य वार्षिक नजराना देने में असमर्थ प्रतापारूद्र द्वितीय द्वारा उसकी अधीनता मानने से इनकार करने पर तुगलक के बेटे उलुघ खान ने सन १३२० में इसपर हमला किया। उलुघ खान बहुतेरी कोशिशों के बावजूद इसे जीतने में असफल रहकर लौट गया।

असफलता से क्रुद्ध मोहम्मद बिन तुगलक ने विशाल सेना जुटाकर सन १३२३ में फिर हमला किया। यह हमला अंतिम और सबसे भयानक था।‌ इसमें उसने वारंगल को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया। किले के बाहर और अंदर की बड़ी आबादी को उसने बेरहमी से मौत के घाट उतारा। उसने राजधानी को लूटा और इसके सुंदर मंदिरों, शाही बाड़ों, पानी के टैंकों, महलों, कृषि भूमि और अन्य महत्वपूर्ण संरचनाओं को पूरी तरह खंडहर में बदल दिया। राज्य देवता चतुर्मुखलिंग स्वामी (भगवान शिव के चार मुखों वाला लिंग) के महान स्वयंभू शिव मंदिर के उसने टुकड़े-टुकड़े कर डाले।

पढ़कर मन खट्टा हो गया।

निश्चय ही इतिहास सीधा चलने वाला नहीं होता। उसे विस्तार से जानना चाहिए और उसकी जटिलताओं को समझकर ही राय बनानी चाहिए।

ठीक है, वह मुसलमान राजाओं के शासन विस्तार का समय था। युद्ध में क्रूरता और बर्बरता होती ही है। लेकिन केंद्र या राज्य सरकार की पर्यटन वेबसाइटों में इसका उल्लेख क्यों नहीं है? क्या पर्यटक को सिर्फ इस किले के गौरव और निर्माण की भव्यता का पता होना चाहिए, इसके पतन और क्रूर विध्वंस की गाथा का नहीं? क्या इसलिए कि इससे यहाँ मौजूद किसी समुदाय पर धब्बा लगता है? सच को दबाकर रखना उस क्रूरता और असहिष्णुता के सामने माथा टेकना है जो इस विध्वंस के मूल में थी। (जो अब भी है, उसके फलसफे और हिदायतों की बुनियाद में जड़ी हुई।)

संयोग से जब हम वहाँ घूम रहे थे तभी वहाँ दूर से अजान का स्वर शुरू हुआ – एक अनुस्मारक की तरह, सदियों के पार से आती हुई, कि देखो मैं हूँ।

अगर हम ताजमहल पर बढ़-चढ़कर गर्व करते हैं तो हमें हम्पी, वारंगल आदि पर उसी तीव्रता से गुस्सा और अफसोस भी प्रकट करना चाहिए। अगर गंगा-जमुनी संस्कृति की दुहाई देते हैं तो उन नरसंहारों और विध्वंसों को अंजाम देने वाली विचारधारा और मनोवृत्ति की भी चीर-फाड़ करनी चाहिए।

किले के टुकड़ों में इतना सौंदर्य था, ऐसी फिनिशिंग थी, ऐसी कल्पनाशीलता थी, कि मन बार-बार व्यथित होता रहा। उन मूर्तियों, स्तम्भों, दीवारों, शिखरों, मंडपों आदि की कुछ झलकियांँ मैंने रामप्पा मंदिर में देखी थीं।‌ आगे उनके और साबुत उदाहरण ‘हजार स्तंभ मंदिर’ और ‘भद्रकाली मंदिर’ में देखकर वारंगल किले के भग्नावशेषों के प्रति अफसोस बढ़ता ही रहा। ये मंदिर अत्यंत सुंदर एवं धार्मिक-सांस्कृतिक आभा से आलोकित हैं लेकिन यहाँ मुझे उसी खोने के एहसास (sense of loss) ने घेरे रखा।

उस भाव से छुटकारा दिलाया विस्मृति से ग्रस्त शहर ने। वारंगल घूमते हुए न तो लोगों की बातों और व्यवहार से, और न ही वहाँ के मकानों, सड़कों, भू-दृश्यों में इसका कोई एहसास होता था कि यह इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण विरासत वाला शहर है।‌ भवनों में कहीं काकतीय शिल्प की छाया न थी। उल्टे लोगों में “यहाँ क्या है!” का उपेक्षा भाव।‌ इस शहर की बहुसंख्यक आबादी, जो  मुसलमान एवं ईसाई है, को देखते हुए यह अस्वाभाविक नहीं था। ‌अपनी मूल सभ्यता और धर्म से छिटके हुए लोगों में उसके अतीत से जुड़ाव भी कहाँ से होगा। इस शहर के वर्तमान जीवन-प्रवाह और शोर के बीच यह किला और मंदिर अतीत के सोए हुए द्वीप की तरह थे। वह ध्वंस केवल जमीन पर नहीं, लोगों के मनों में भी घटित हुआ था।

चलो, अपने इतिहास के गर्व और पछतावों से अनजान होना भी अच्छा ही है –

“सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।”

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