
विनीता तिवारी की ग़ज़लें
– विनीता तिवारी, वर्जीनिया, अमेरिका
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ग़ज़ल-1
तेरा मुझसे मुझको चुराना ग़ज़ब है।
चुराना, फिर अपना बताना ग़ज़ब है।
यूँ ही रात ख़्वाबों में मुझको बुलाकर
बिना बात लड़ना-मनाना ग़ज़ब है।
मुझे कर गई दंग उसकी कहानी
वो कहता है मेरा फ़साना ग़ज़ब है।
बड़े ज़ोर- शोरों से ख़ुद की बताकर
ग़ज़ल दूसरों की सुनाना ग़ज़ब है।
तेरा दूर से देखना इस बदन को
निगाहों से छूना, सजाना ग़ज़ब है।
चलो तो कभी चाँद पे घूम आएँ
सुना है वहाँ आना-जाना ग़ज़ब है।
नहीं बेख़बर मैं फ़रेबों से तेरे
मगर दिल का तुझ पे ही आना ग़ज़ब है।
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ग़ज़ल-2
आज फिर तेरे ध्यान में हूँ मैं,
सातवें आसमान में हूँ मैं।
है दरीचा, न दर, न दीवारें,
जाने कैसे मकान में हूँ मैं।
ज़िंदगी से शिकायतें कैसी,
बाखुद़ा इत्मिनान में हूँ मैं।
बिक न जाऊँ जुनून में उसके,
एक ऊँची दुकान में हूँ मैं।
छोड़ घर बार राह में बैठे,
देश के हर किसान में हूँ मैं।
राम जाने रहीम ईसा को,
क्यूँ भला दरमियान में हूँ मैं।
नाम कुछ भी निकाल लो मेरा,
हर जगह, हर ज़बान में हूँ मैं।
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ग़ज़ल-3
ज़िंदगी की तलाश जारी है,
जाने कैसी लगी बिमारी है।
घिस गईं एड़ियाँ पड़े छाले,
फिर भी चलने की ज़िद हमारी है।
काम आया नहीं कोई पैबँद,
उधड़ी उधड़ी सी रिश्तेदारी है।
कुछ तो उसकी दुआ में दम कम है,
कुछ मेरा ज़ुर्म ख़ूब भारी है।
जिसको देखा नहीं, न जाना ही,
ज़ीस्त ये सारी उसपे वारी है।
ढेर मंज़र थे सामने बिखरे,
कहीं दाता, कहीं भिखारी है।
कुछ मेरे ख़्वाब भी है धुंधले से,
और कुछ घर की ज़िम्मेदारी है।
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ग़ज़ल -4
बसर ज़िंदगी यूँ किये जा रहे हैं।
न सपने, न अपने, जिये जा रहे हैं।
न है पास दौलत, न दुनिया ही यारों,
फ़क़त आँसुओं को पिये जा रहे हैं।
बताने की कोशिश बहुत की मगर वो,
लबों से लबों को सिये जा रहे हैं।
यहाँ दर्द बिकता है, बिकती हैं ख़ुशियाँ
लिये जा रहे हैं दिये जा रहे हैं।
रहे कल तलक सीखते जो हमीं से,
नसीहत वही अब दिये जा रहे हैं।
ये मुल्ला ये पंडित महज़ कारोबारी,
हिसाबों में गड़बड़ किये जा रहे हैं।
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ग़ज़ल- 5
भरा ख़ुशियों से है आँगन कि होली आई रे आई।
भिगोया इश्क़ ने तन-मन कि होली आई रे आई।
उठा लेते हैं वो आकाश सर पे रंग डालो तो,
मधुर सी हो गई अनबन कि होली आई रे आई।
हरा, पीला, गुलाबी लाल अनगिन रंग हैं बिखरे,
निखरता जा रहा यौवन कि होली आई रे आई।
खनकती झांझरे, चूड़ी, थिरकते पाँव तालों पर,
न माने दिल कोई बंधन कि होली आई रे आई।
छुड़ा लेते हैं वो दामन किसी मीठे बहाने से,
उलझ जाती है पर धड़कन कि होली आई रे आई।
कहीं गुझियों भरी थाली, कहीं ठंडाई का आलम,
बहकता जा रहा मधुबन कि होली आई रे आई।
ज़रा सा थाम के बाँहें, नज़र भर देख लेने दो,
हटा दो आज तो चिलमन, कि होली आई रे आई।
नगाड़े ढोल तासे बज रहें हैं रंग भी बिखरा,
धरा लगने लगी दुल्हन कि होली आई रे आई।
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ग़ज़ल- 6
मुझे यक़ीं है वो महफ़िल में लौट आए हैं।
तभी चिनार के पत्ते यूँ सरसराए हैं।
कोई वजह है कि हमने नहीं जलाए, मगर
दिये सभी ने गली में बहुत जलाए हैं।
जहाँ में सबसे रही यूँ तो दोस्ती अपनी
किसी भी शय से मगर दिल लगा न पाए हैं।
कभी तो यूँ भी हुआ हाल-ए दिल सुनाते हुए
छिपा के अश्क इन आँखों में, मुस्कुराएँ हैं।
भले ही एक भी पूरा न हो पाए लेकिन
हमारी आँखों में सौ ख़्वाब झिलमिलाए हैं।
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