
डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, ब्रिटेन
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वह सांप
यह सांप जहरीला नहीं था
(शायद)
अचानक प्रकट हुआ
फिर कुछ दूर सामने
तन कर खड़ा हो गया
मैं जड़वत उसे देखता रह गया
वह तना खड़ा रहा
न हिला, न डुला
न किया उसने मुझ पर प्रहार
न ही प्रकट की कोई दुश्मनी
सिर्फ देखता रहा
कुछ क्षणों बाद
मेरा तन-मन कुछ ढीला पड़ा
कहीं आश्वस्त हुआ मैं
तय किया बेमौत नहीं मरने दूंगा अपने को
इसीलिए मैंने भी अपनी गर्दन ऊंची की
और उसे उसी की तरह देखना शुरू किया तन कर
मैंने ध्यान से उसे देखा
देखा, उसकी आंखों को
उनमें मोहकता थी
देखा उसके शरीर को
उसमें लोच थी
उसकी चमड़ी को
उसमें चमक थी
उसके मुंह को
उसमें था एक धारदार रहस्य
फिर देखा उसके आसपास को
वहां जो कुछ भी था स्पष्ट था
अनावृत्त, पैना, भीतरी ललकारों को उकसाने वाला
फिर वह कुछ क्षणों बाद
उठती आहटों को सुन कर
अनिश्चित-अव्यवस्थित-सा घबरा कर
पीछे मुड़ा
और कहीं वापस चला गया
वह सांप जहरीला नहीं था
(शायद)
ओह कितने दिन हुए उसे देखे
कितने सारे वर्ष
जो लगते हैं अब युगांतर
पर उसकी याद बनी रही कदाचित इसलिए
कि उस जैसा कभी नहीं मिला फिर कोई
जो मेरी जिजीविषा को वैसा
प्रबलतम अर्थ दे सके।
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(साभार-‘धरती एक पुल’ कविता संग्रह से)