कीर्ति चौधरी, ब्रिटेन

कंगाली

शब्द पहले ही कम थे
और मुश्किल से मिलते थे
दुख-सुख की बात करने को
अब जैसे
एक कंगाली सी छा गई है

क्या इशारों में हम करें बातें
सर झुकाकर निकल जाएं

जो जीवन भर ईमानदार बने रहे
जिन्होंने सच बोलते-बोलते
उमर गंवा दी
वे भी अन्त में कहीं नहीं पहुंचे
औरों के बारे में तो तय था
कि पहुंचेंगे ही नहीं।

सत्य किसी को पहले
किसी को बाद में हाथ लगता है
मैं उंगलियों पर गिनती हूं
उन वर्षों को
जो बीत गए
कविताएं-कहानियां लिखते हुए
और खोज करते हुए
उस भविष्य की
जिसमें सबका साझा था
बराबर का।

सर ऊंचा कर चलने का हक
जिसमें सबके हिस्से में
आने वाला था

दूर आज उतनी ही दूर
दिखाई देती है वह दुनिया
उतनी ही बंटी हुई खानों में
जितनी तब थी
उतने ही झुके हुए सर
उतनी ही आत्मग्लानि
वैसा ही वैभव का
अपराजित भाव।

मैं उंगलियों पर गिनती हूं
उन वर्षों को
जिनमें क्या कुछ
हासिल हो सकता था
लेकिन जो बीत गए
फलविहीन वृक्षों की भांति
जहां छांह एक झूठे आसन सी
टंगी रही बरसों तक

उन्हीं वर्षों को
उंगलियों पर
गिनती हूं बार-बार।

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