– कीर्ति चौधरी, ब्रिटेन

लिखना-दिखना

जो लिखता था,
वैसा ही तो मैं दिखता था।

अभी पुरानी नहीं हुई यह बात
धूप धूप थी
रंग रंग थे
सही नाम हर एक चीज का
फूल अगर कागज के थे तो
असली के धोखे से कोसों दूर
उनसे दिल बहलाना
अपनी मजबूरी थी
झूठ नहीं था

उलझ गई हैं एक दूसरे में
अब बातें
मैं नफरत को प्यार
प्यार को गुस्सा अकसर कह देता हूं,
गर्व किए जा सकने वाली
घटनाओं को केवल बोझ
समझ लेता हूं,
ढूंढ नहीं पाता अन्दर की
बेचैनी को
बस टटोलता रह जाता हूं
शब्दों को जो कम पड़ जाते
अकसर केवल रस्म निभाते
अंतरंग बनने से जैसे
कतराते हैं,
झूठे शब्द
गलत नामों की दुनिया
रोज-रोज रचता हूं
पर मेरी तस्वीर
अधूरी रह जाती है

क्या हूं
तुमको क्या दिखता हूं!

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