डॉ. गौतम सचदेव, ब्रिटेन

लंदनी धूप

यहां धूप मिलती पहनकर लबादा
हर दिन बदल जाए उसका इरादा
कभी बनके निकले फटेहाल दुखिया
कभी बाप ज्यों उसका हो रायजादा
दबे पांव घुस-घुसके देखे घरों में
परदों के अन्दर छिपाए इरादा
कभी तोड़ बंधन चली बादलों से
महाजन-सी लग जाए करने तगादा
गिरे बावली-सी सभी की नजर में
कटे जंगलों का उड़े ज्यों बुरादा
कभी उम्र छोटी कभी छांव लम्बी
चमक ऊपरी और ठंडक जियादा
संभलकर उघाड़े बदन नस्ल गोरी
बना देगी फरजी से उसको पियादा
कभी छेड़ती कमसिनी चुटकियों से
कभी गर्भिणी-सी पड़ी सुस्त मादा
भले ही सवेरा दुपहरी या संध्या
निकलने का यह रोज करती न वादा

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