
संगीता शर्मा, कनाडा
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रीत इस दुनिया की
दुनिया बनाने वाले ये भी तूने क्या रीत बनाई
भेज दी जाती हैं गैरों के,अपनी जाई
हंस खेल रही होतीं हैं अपनों के बीच
कर दी जाती हैं परायी
जैसे एक हरे भरे पौधे को उखाड़
स्थापित कर दिया जाये एक नए स्थान पे
चाहे फिर वो वहां पनपें या झुलसें
वो छोड़ दिया जाता हैं उनके मुकद्दर पे
और बहुएं को जाती हैं नए सिरे से उसके नए घर की रीत सिखाई
बहुएं तो होतीं हैं अनमोल
क्यों न हों ?
उन्हीं से तो बढ़ता है वंश
और बेटियों का रह जाता है अंश
उनके कमरे में और उनकी हर चीज़ में
छोड़ जाती हैं यादें जब होतीं हैं उनकी पूरी मुरादें
अपनी खुशबु उस अलमारी में और अपने कपड़ों में
ये मन, उनके भीने भीने गुन गुने प्रेम में ओत प्रोत
ढूंढता है उन्हें हर जगह
और बैठ जाता है हार, सच्चाई को देख-समझ
शिकवा कुछ नहीं ज़माने से
दिल भी मान ही लेता हैं समय के चलते
अगर बहुएं बढाती हैं वंश
तो बेटियां संभालती हैं
हमारी पाक कला, हमारे मूल्य, हमारे आदर्श
और सहेजती हैं हमारे साथ बिताये हुए सुन्दर पल
एक टीस सी उठती है, आंखें जाती हैं भर
जब आता है याद उनका निस्चल प्यार, इकरार और इसरार !
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