समय की मार ने
उधेड़ दी है
घर के दीवारों की चमड़ी
बुज़ुर्ग छत पर
पड़ गयी हैं सिलवटें
झुर्रीदार दरवाज़ों की
भिंची हुई मुट्ठियाँ
पड़ती जा रही हैं नरम ।
बूढ़ी हड्डियों के
खिसकने के डर से
ढीली पड़ती उँगलियों से
ताक़त भर पकड़ रखी है
जंग लगी लोहे की
वह पुरानी साँकल
जिसकी लहरदार चोटियों में
तहज़ीब से गूँथ दी गई थी
घर की हिफ़ाज़त
और मर्यादा की सीख ।
उस सीख के बोझ से
दुखने लगे हैं
बुर्जुआ कन्धे और हाथ
हथेली की सिलवटों में
सो गयी हैं
सुनहरे कल की
सपने दिखाती लकीरें ।
उन लकीरों को
क़िस्मत की किताब समझकर
सुबह-शाम
पढ़ा करते थे हम
अब खुली किताब के पन्नों से
फड़फड़ाया करते हैं हम
मगर उन्हें पढ़ने वाला कोई नहीं।
अतीत के इस खंडहर में
सिवाय यादों के
कुछ नहीं रहा
यादें भी ऐसी
जिन्हें नहीं करना चाहता
कोई भी याद ।
अनचाही कॉपी किताबों की तरह
ये नहीं बिकती
रद्दी के मोल भी
इन्हें नहीं रखा जाता है
संभालकर उस तरह
जैसे रखे जाते हैं
पुश्तैनी ज़मीन के काग़ज़ात
और पुश्तैनी ज़ेवर ।
-आराधना झा श्रीवास्तव
