
–सुषमा मल्होत्रा, अमेरिका
प्रज्ज्वलित शिकारा
स्याही सी काली रात छा रही है
धरा से ज्वालाएं ऊपर आ रही हैं
हर ओर है मातम का समां
धू-धू करता धुआँ उठ रहा है
उसके बीच कोई शिकारा जल रहा है।
डल झील का पानी उबल रहा है
चिनार के पत्ते जल कर गिर रहे हैं
आग के शोले भड़क रहे हैं
सर्प बन जो सब को डस रहा है
उनके बीच कोई शिकारा जल रहा है
मान-मर्यादा नीलाम हो रही गली-गली
माँ-बेटियाँ, बहुएँ गुलामी सह रही हर घड़ी
आतंक और भय हर ओर छाया है
महिलाओं के सिर से आँचल सरकाया है
वहीँ आस-पास एक शिकारा जल रहा है।
मानव के लिए स्वर्ग था जो इस धरा पर
सौन्दर्य का पर्याय था जो जहान में
उसे कलुषित- कलंकित करने का प्रयास करते हुए
सौन्दर्य के प्रतीक को नर्क बनाते हुए
वहाँ पर कोई मानवीय शिकारा जल रहा है।
मन ही मन में क्रोधित होते हुए
हर दर्द कराह को दबा कर जीते हुए
अपनी विवशता पर अश्रु बहाते हुए
अपने लाचार हाथों को हाथों में थामते हुए
हर किसी के मन में एक शिकारा जल रहा है।
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