
– सुषमा मल्होत्रा, अमेरिका
तुलसी का पौधा
वो खुला सा आंगन
उस में कई तरह के पौधे
फल के कुछ फूल के
मगर मेरा सबसे मनपसन्द
था तुलसी का पौधा
रखती थी दादी
उसे सदा एक कोने में
मैं उसे बार बार छूना चाहती
पास जा एक पत्ती तोड़
मुँह में डालती
हर बार पकड़ी जाती
अनुदेश, निर्देश था
कि बिन स्नान किये
इसे छूना नहीं
पत्ती को तो क्या तोड़ना
उसके पास भी जाना नहीं
दादी उसे वृंदा कह बुलाती थी
खुद वृन्दावनी बन जाती थी
मैं खिज जाती और कहती
दादी तुम्हें मुझ से अधिक
वृंदा से प्रेम है
वह कहती, है प्रेम
तुम भी बनो वृंदा सी
करना रक्षा घर की
और घर में रहने वालों की
तो खुद ही वृंदा बन जाओगी
मैं साथ न भी रहूं
रखना घर के आँगन में इसे
इसकी हर पत्ती की महक
मेरी याद तुम्हें दिलाएगी।
अब मेरे घर में भी एक वृंदा है
जिसे मैं सबसे अलग रखती हूँ
उसे छूने से पहले
दादी की हिदायतें
याद कर लेती हूँ।
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