– डॉ. गौतम सचदेव, ब्रिटेन
नीराजना
दीप बुझता-सा लिए
मैं खोजता हूं
चिर मुंदा अनजान ओझल द्वार
जिसके पार
स्रोत आपन्न अपरंपार
बस ज्योतिष्मती निर्द्वन्द्व धारा बह रही है
काल-द्रुम के स्वर्णपल्लव
एक बंदनवार में आविद्ध
मस्तक पर चिरन्तन भाव से
आभा नमित हैं
पास कल-कल कर रही हैं
ज्योति-लहरें
सतत नर्त्तन भाव में
कण-कण थिरकता लोमहर्षित
इन्द्रधनुषों के अमर आनंदपथ भी
ध्वनित हीरकचूर्ण की
फिर-फिर सजाते हैं रंगोली।
द्वार मुझको वह किधर कैसे मिलेगा
पार जिसके रश्मिरथ पर
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(‘धरती एक पुल’ कविता संग्रह से साभार)