फोन की घंटी घनघनाई! गोद में खिला रही नन्ही बच्ची को पत्नी की ओर बढ़ाते हुए तिवारी जी ने रिसीवर थामा– हल्की सी प्रसन्नता घुली आवाज़ में– हैलो–अरे प्रभाकर– नमस्ते-नमस्ते, कैसे हो। मैं तो ठीक हूँ तुम अपना बताओ, सब कुशल मंगल है न?

“हाँ-हाँ सब अच्छा है। फिर आज की गोष्ठी में क्यों नहीं आए?”

“अरे क्या बताऊँ यार बस आते-आते रह गया। असल में आज अजीत बहू और बच्ची को लेकर अचानक आ गया, तो क्या करता? तुझे तो सब याद होगा, कैसे शादी के दो महीने बाद ही पत्नी के कहे में आकर अलग घर बसा लिया था जनाब ने। एक बार भी हमारा नहीं सोचा था इस इकलौती संतान ने। याद है न, तेरी भाभी का क्या हाल हो गया था, दो बरस तक चारपाई पकड़े रही थी।”

“फिर आज कैसे तुम्हारे लिए इतना प्यार उमड़ आया उसे, लगता है कोई ख़ास ही काम आ पड़ा होगा, वरना– आज-कल की औलाद!”

“ठीक ही कहा तूने प्रभाकर, कल से बहू की छुट्टियाँ जो ख़त्म हो रही हैं और आज लाटसाहब को माँ-बाप याद आ गए। अब बच्ची को रखने की मुश्किल जो आ रही है, कहता है बालवाड़ी में नहीं रखना चाहता। संस्कारों की बात करता है अब। उस दिन तो कुछ न बोला था, जब पत्नी ने इसके माँ-बाप को जाहिल बताया था। सारे संस्कार चूल्हे में झोंककर चल दिया था उसकी ख़ुशी के लिए। कहना तो आज बहुत कुछ चाहता था मैं उसे, पर कुछ कह नहीं पाया। बरसों बाद तेरी भाभी के चेहरे पर ख़ुशी देखकर सब कुछ अन्दर ही पी गया। ममता जो आड़े आ गई थी।”

“ठीक कह रहे हो- तिवारी, आज सब के सब स्वार्थी हो गए हैं, फिर चाहे अपना ख़ून ही क्यों न हो।”

“बात तो सही कह रहे हो प्रभाकर,पर मैं फिर भी सोच रहा हूँ– शुक्र है आज की दुनिया में स्वार्थ तो बचा हुआ है, आज यदि स्वार्थ जीवित न होता तो बरसों बाद बेटे का मुख देखने के साथ-साथ अपनी पोती को देखने का सुख कैसे प्राप्त कर पाता!”

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-कृष्णा वर्मा

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